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Tuesday 30 December 2014

मछली के आँसू

मछली के आँसू
महसूस कर रहा हूँ
सागर को देख कर/
इतना खारापन आखिर
पीढ़ा के घनीभूत उच्छ्वास का
तारल्य तो नहीं......
संभव है/
संभव है सागर के किनारे
रेत का सैलाब
कितने मरूओं को
पाले अंक में अपने
कितनी मरीचिकाओं का
अपराधी है ।

मेरे हिस्से का गीत

मुझ जैसे कितने हीं/
लगे हैं और लगेंगे/
जागे है जगेंगे/
गा चुके है और गाएंगे/

मैं लव नहीं!
दशमलव, शतमलव, सहस्त्रमलव, लक्षमलव भी कदापि नहीं/
मैं गणित, ज्ञान और विज्ञान से परे /
एक अदद दायित्व लेकर आया
कोई हूँ /

जो अपने सिर पर
मिट्टी की परत में दबा सोया
किसी सूरज, पानी
और वायु के समुच्चय में,
अपने ऊपर दो पत्तियों के
अंकुरों को निकालकर एक गीत गाऊंगा/ मेरे साथ और
और भी सुर मिलाएंगे/

हम सब धरती पर
धरती के साथ
धरती के लिये
हरियाली के गीत गुनगाएँगे/
इस चिंता के बिना की
समवेत में कौन शामिल है,
और कौन नहीं/
हमें तो गाना है गीत अपने हिस्से का/
मेरे हिस्से का गीत!
28-12-2014

Monday 29 December 2014

घास

घास
घास जानवर के लिये
भोजन का जरिया है।

आदमी के लिये
टहलने का
भोजन पचाने का
क्षणभर ठहर कर सुकून का।

किसान के लिये
आफत है
जो चौपट कर देती है फसल
बिकवा देती है खेत
इसलिये निरंतर उसके
विरूद्ध युद्ध जारी है किसान का।

इस तरह जानवर, आदमी और किसान
को
अलग करती है घास
किसी को भोजन
किसी को विचरण
किसी के लिये मरण का जरिया बन।

पर कुछ और भी है जिनके लिये
सब कुछ है
जैसे कीट - पतंगे,
जिनके लिए
जनम, भोजन, विचरण और मरण
सब कुछ

मगर धरती की सोचो
घास धरती के लिये
उर्वरता है! 

पेशावर का दर्द

जब भी मैं पेशावर से बेसलान की दूरी
नापने की कोशिश करता हूँ
फर्लांग और मीलों में/
वह अपने आप 'कन्वर्ट' हो जाती है
महिनों और वर्षों में/
मेरी हर कोशिश नाकाम साबित होती है।
मैं भूगोल नापना चाहता हूँ
और इतिहास नप जाता है/
इतिहास की एक
हरामी ज़िद
अपनी ज़द में घेर लेती है
समूचा युग!
इस ज़द की बढ़ती कालिख
वर्तमान को लील जाती है,
किसी खामोश अजगर की तरह/
मालूम पड़ता है तब
जब
अजगर
निगल चुका होने के बाद
मरे हुए समय को पचाने के लिये
तड़ तड़ चटकाता है हड्डियाँ /
पेशावर और बेसलान की तरह।

विदेह जीवन

देखता हूं रक्त में प्रवाह
समय से आगे
जैसे
ठहर गया हो समय
और
रक्त धमनी और शिराओं की सीमा
लांघ कर
बहना चाहता है
उन्मुक्त/
रक्त का अवरोध जीवन है?
या रक्त से विरक्त
होकर बह निकलना
होना विदेह
या दुनिया से विरत!
जीवन की सीमाओं से परे
देह और रक्त के संबंधों से विलग
जीवन है निस्सीम!13-12-2014

यज़ीद

नानी की कहानियों में
सुनते थे
चुड़ैलें भी गर्भवती महिलाओं को
मारती नहीं/
भावी माँ का करतीं है सम्मान ।
हत्यारिनें भी जान नहीं लेतीं
यदि जान लेती है कि उसकी शिकार
'दोजीवी' है।
हत्या में शिष्टाचार
लगता है
मिथक और कहानियों की बातें
हो चुकी है।
डेढ़सौ निरीह महिलाओं का निर्मम वध
सुनकर
रूह तो काँपती हीं है
पर
लगता है
कि यज़ीद और यज़ीदियों ने
शब्द नहीं बदले,
अर्थ बदल लिये है
बदलते दौर में।
20-12-2014

Friday 26 December 2014

घास

घास
घास जानवर के लिये
भोजन का जरिया है।

आदमी के लिये
टहलने का
भोजन पचाने का
क्षणभर ठहर कर सुकून का।

किसान के लिये
आफत है
जो चौपट कर देती है फसल
बिकवा देती है खेत
इसलिये निरंतर उसके
विरूद्ध युद्ध जारी है किसान का।

इस तरह जानवर, आदमी और किसान
को
अलग करती है घास
किसी को भोजन
किसी को विचरण
किसी के लिये मरण का जरिया बन।

पर कुछ और भी है जिनके लिये
सब कुछ है
जैसे कीट - पतंगे,
जिनके लिए
जनम, भोजन, विचरण और मरण
सब कुछ

मगर धरती की सोचो
घास धरती के लिये
उर्वरता है
सतत लड़कर मरूथल के साथ

घास हीं जीवन का क्रम सिरजती है।

Sunday 12 October 2014

रोप-वे—गजेंद्र पाटीदार

मुझे मालूम है
मृत्यु जीवन का
अनिवार्य
और
अंतिम सत्य है/
फिर भी
मृत्यु के विरूद्ध
जीवन
कितने षड़यंत्र करता है?
मुझमें भी
अमरत्व की भूख
इतनी बढ़ चुकी है कि
मरना भूल चुका हूँ/
अमरता भूख है
और मौत भय/
(भय को भुलाना
भी षड़यंत्र है)
भय को भूलना
जरूरी है,
संभवत:
जीवन की मजबूरी/
इस तरह
भय और भूख
के बीच
जीवन
'रोप-वे'/
                      दि.12-10-14

Thursday 2 October 2014

मेरा गणतंत्र— गजेंद्र पाटीदार

मैं जनतंत्र का 'जन'
तंत्र से जुदा
सुनता हूँ
गणतंत्र चार स्तंभों पर खड़ा है
मैं देखता हूँ ।

पर मुझे बताया गया है
ये चार स्तंभ हाथी के पांव जैसे है।
इन चार स्तंभों को स्वीकार करने के लिये
मुझे अंधा होना चाहिये।

यदि मैंने देखे
इस गणतंत्र के पैरों को
'चौपाये' की तरह
तो यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का
बेज़ा इस्तेमाल होगा!

देश में कानून का राज है
राष्ट्र की सुरक्षा
राष्ट्रवासियों से ऊपर है!

यदि 'चौपाये' के पैरों को
मैंने कहा 'लंगड़ा'
तो इसे सिद्ध करने की जिम्मेदारी
संविधान ने मुझ पर सौंपी है

यह चौपाया जिसे चलाने के चक्कर नें
'नाल' ठुकवाई गई है
ताकि चौपाये का लंगड़ापन
लील जाए 'नाल'

पर नाल है कि
पैर से उखड़ कर दूसरे पैर को
घायल कर रही है
गणतंत्र को लंगड़ाना है

मैं आश्वस्त हूँ
कि मैं इस चौपाये की खींची
गाड़ी में बैठा हूँ
ये कहीं पहुँचे
न पहुँचे

सूत्रधार
इस मर्म को जानता है
कि मंच पर चौपाये को चलाने का
तरीका यह भी है कि-
नैपथ्य की यवनिका को पीछे की तरफ
खींचा जाए
गणतंत्र आगे
चलता हुआ महसूस होगा।
                                       01-10-14

Monday 29 September 2014

दूसरा प्यार— गजेंद्र पाटीदार


पाँच सहस्त्राब्दियाँ बीती
विरहिणी क्रौंची को
विरहाकुल आलाप करते

आखिर कब तक
बाँधे रखेंगे
उसे जड़ता में?

कब निकलेगी गहन कुहेलिका से?

सदियों के विस्तार ने
अपने मानक बदल लिये है/
आस्थाएं बदली है/
देवता बदल लियेे है/

फिर क्रौंची की मर्मान्तक कराह
कराल काल की राह पर
क्यों न खोज पाई
अपना दूसरा प्रेम?

क्यों उसके पाषाण हृदय से
फूट न पाया प्रेम का निर्झर?

आओ हम क्रौंची की कराह को सराहें नहीं/
सान्त्वना दें/

बंधन खोलें उसके
फिर से आकाश में उड़ने का/

सोचें
निषाद के हाथों वध हो गया होता
यदि क्रौंची का!

तो कितने दिन एकाकी विचरता क्रौच?
क्या वह नैन मटक्का नहीं करता?

आखिर हमारी सभी वर्जनाएँ मादा पर हीं
क्यों लागू होती है?
आखिर क्यों?
                     29-09-14

Friday 26 September 2014

पैसा—गजेंद्र पाटीदार

छोटा आदमी
हाड़ तोड़कर
अपने पसीने से पैसा बनाता है!

बड़ा आदमी पैसा नहीं बनाता
पैसा बड़ा आदमी बनाता है

छोटा आदमी
पैसा बनाने में
छोटा हीं रह जाता है!

Tuesday 23 September 2014

सपने - गजेंद्र पाटीदार

कौंन बुनता होगा सपने?
मैं उस सपनों के विधाता से मिलना चाहता हूँ /
कैसा होगा वह सपनों का आर्किटेक्ट?
जो संसार को सपने देकर खुद जाग रहा है—
तुममें, हममें, सबमें/
क्या सपने नियति है या नियति स्वप्न है?
सोचता हूँ /
पर अच्छा होगा
उस सपनों के देवता को जागनें दूँ और खुद सो जाऊं
एक सपना जीने के लिये/
एक सपना पूर्ण होता है अपने आप में एक जीवन की तरह/
हम एक जीवन जाएँ या एक सपना, बराबर है!

क्षणभंगुरता - गजेंद्र पाटीदार

21 वीं सदी के भौतिकतावादी समय के
नवहस्ताक्षर
भौतिकता के पुनर्जागरण काल के
उन्नायक
नहीं समझते कि
दुनिया के पार भी एक दुनिया हैं, मेले हैं/
'वे'
सब चार्वाक के चेले है/
—" जो है, यहीं है; यहाँ नहीं वह कहीं नहीं" के सूत्र के सूत्रधार
जीवन को क्षणभंगुर मानकर
करते हैं व्यवहार /
'डिनर' की टेबल पर
जीवन की नश्वरता पर
करते हैं चर्चा
पर टेबल की प्लेट में रखा.....
उस मुर्गे से ज्यादा क्षणभंगुरता का मतलब कौन समझता है?
इस क्षणभंगुरता में इतवार के मानी
अलग नहीं होते?
खुद से पूछता हूँ /

Saturday 20 September 2014

तंत्र का छल—गजेंद्र पाटीदार

अपने आप को गरीब साबित करने की
होड़ देखना हो तो
राशन की दुकान पर देखिये/
'लोक' को 'तंत्र' खुद
छला जाना सिखा रहा है/
राशन की दुकान पर कतार में
लगा आदमी अमीर नहीं गरीब होना चाहता है/
राशन की दुकान
देवों का अक्षय पात्र है या मानवता की देह पर पनपी कोढ़ है/
खुद से पूछता हूं?
अन्न उपजाता किसान
और भूखा आदमी सिक्के के दो पहलू है/
और लोकतंत्र का सिक्का खनखना रहा है/

Wednesday 17 September 2014

बाघ गुफाएँ —गजेंद्र पाटीदार

बाघ की गुफाएँ
इतिहास की मूक गवाह सी/
विन्ध्य मेखला की उपत्यका में
जैसे करूणा द्रवित हो
बहाती हो अश्रु
अपने सहस्त्र चक्षुओं से/
गुफाओं में विराजित
महाबोधि के मुख पर
अलौकिक शान्ति
मिट चुकी जैसे समूची भ्रांति,
'बुद्धम् शरणम्' का उद्घोष
संघनित होकर विलेपित हो गया हो
कंदराओं की भित्तियों पर/
सम्मुख बहती
शांत होकर व्याघ्र सी चपला
'बाघनी' सरिता
शताब्दियों से सम्यक बोध का
कालजयी कलकल निनाद करती सी/
बोधिसत्वों के स्खलित
मौन-मूक विग्रहों से उठती ध्वनि
बुद्ध के पथ का
सहस्त्राब्दियों के पार
कर रही विस्तार
आज भी अक्षुण्ण, अप्रमेय /
इतिहास के मौन साक्षी
गुफा के भित्ति चित्र
देश,काल और स्थिति के
कितने विषम विस्तार को समेटे है/

कल कल - गजेंद्र पाटीदार


आदमी
कल और कल
के बीच
उम्मीदें बोता है।
और असफलताएँ
       ढोता है।

बर्फ की मानिंद
उसका वर्तमान
पिघल पिघल कर
कल कल
          बहता प्रतीत होता है।
कल कल बहता
          अतीत होता है। 
                             09,04,1998

Saturday 13 September 2014

ईश्वर —गजेंद्र पाटीदार

मेरे चीथड़ोंसे
चूते पसीने की
गंध तुम सह नहीँ पाओगे
कीचड़ से सने
पैर
कईं  सफेदियों पर ग्रहण लगा देंगे। इसलिए तुम
मेरे पास मत आओ
मुझे रहने दो
असुविधा के इस रौरव मेँ
रहने दो कुभीपाक में अभी
क्योंकि
तुमने अंबेडकर को भी
कोट ओर पतलून पहनाकर
मेरी जात से छीन लिया है/
अब मैं नहीँ आना चाहता
तुम्हारे साथ
क्योंकि
मुझे पता है, तुम्हारे साथ जो गया/
वह बदजात हो जाता है/
राजधानियों की रंगीनियों मेँ डूबकर
वह केवल सपनों का सौदागर हो जाता है इसलिए मैं
सबको ठुकराता हूँ/
नकारता हूं सबको/
कि मेरी पीड़ा को भी तुम/
अपने विज्ञापन के अवसर के रुप मेँ लेकर/
बस मेरा मजाक उड़ाओगे/
मैं तपूंगा और/
इस नरक की आग मेँ/
अब न छला जाऊंगा तुम्हारे ईश्वर से भी/ क्योंकि जिसे
जिसे मैंने अपना कहा/
चालाक तुम लोगों ने/
उसे ईश्वर बनाकर पूज दिया/
बैठा दिया गर्भगृह मेँ कैद करके/
मंत्रों की आवृत्तियों के जाल में उलझा तुम्हारा ईश्वर भी/
मेरी हाय से बच न सकेगा/
मेरी सड़ांध भरी जिंदगी को जब तक तुम्हारा ईश्वर न सीकारेगा/
बच नहीँ सकता/
यह सब होगा/
अगली क्रांति की सुबह/
............29,08,2014

टिटहरी की चीख - गजेंद्र पाटीदार

टिटहरी
जेठ की भीषण
दुपहरी में

कंकड़ों, पत्थरों का
कोटर बनाकर
देती है अंडे

छुपा देती है उन्हे
उन्हीं कंकड़ों के बीच
अंडाखोरों से सुरक्षा के लिये/

टिटहरी भी धरती पर
दिखती कहाँ है प्रकृति की विशालता में?

उसके अंडों की ओर
उठते कदमों के विरूद्ध चीख का नाम
हीं तो है
टिटहरी /
        13-09-14

लोकतंत्र और बहसें

शाम के छ: बजने वाले है/
आज का ज्वलंत मुद्दा
"................."
टीवी पर पैनलिस्टों का होगा
घमासान
फिक्सिंग में सेट कुछ
अखबारी बिरादर भी
फिक्स हैं/
किस दल से कौन?
क्या बोलेगा?
पता है।
अलबत्ता पता होना चाहिये—
कौन किस दल में है?
टीवी के प्यालिया तूफानों से हम
अमूमन वाकिफ होते है
मगर फिर भी
हम बैठते हैं शाम के छ: बजे/
टीवी के आगे /
इस तरह रोजमर्रा से
जूझकर भी
हम तटस्थ रहते है, 
लोकतंत्र के
पक्के और सच्चे वोटर की तरह/
आखिर हम लोकतंत्र के
पहरेदार भी तो है/
           13-09-14

Wednesday 10 September 2014

उधार नींद—गजेंद्र पाटीदार

माँ
आज मेरा मन तुम्हारे साथ उठकर
तुम्हारी तरह
कोल्हू का बैल बनकर
जुतने का नहीं है/
नहीं करूंगी चूल्हा,
चौका और बर्तन घिसने का काम
कपड़े, लत्ते
गाय का दूध
बैलों की चिन्ता
चारा, पानी सब कुछ
आखिर सदियों से
तुमने इन सबमें
मुझे झोका है मां/
आज देर तक सोऊंगी
भैया की तरह
अपने घर विदा होने से पहले
तेरे आँचल में
मैं सुकून से सो लेना चाहती हूं/
मेरे हिस्से का सपना
छोड़कर
जाना नहीं चाहती/
जीवन के कड़वे यथार्थ
का सामना करने से पहले
अपने हिस्से की नींद
लेकर जाना चाहती हूँ /
वरना सदियों की नींद जो तुम्हारे पास
पेटी में बंद है
किसी गुड़िया की तरह
या मुझ नवजात के कपड़े
बित्ते भर के/
रह हीं जाएँगे तेरे पास
फिर अनंत काल के लिए ।
          ——10,09,2014

Monday 8 September 2014

अर्थसंकोच - गजेंद्र पाटीदार

एक ने कहा 'राम'
दूसरे ने 'मंदिर' समझा
कबीर! बपुरा!!
ढाई आखर के फेर में
क्या करता?
—'टीका'

जब शब्द और अर्थ
मृत्यु शय्या पर
तड़पते हों,

जब 'संप्रदाय' शब्द में
सड़े गले मुर्दे की
गंध महसूसने लगे

तब मानना होगा
लोगों की घ्राण शक्ति
शब्दों की उपज है/

महाबोधि —गजेंद्र पाटीदार

महाबोधि
पोखरण के पोखर का आचमन स्वीकारो
सचराचर विश्व तुम्हारा है,
किसे कहूं मेरा,
विश्व, देश, सागर,
मरूथल, पठार, 
नदियाँ,  झील, पोखर,
सब कुछ
भूमिज धान्य भी, यूरेनियम भी,
संलयन, विलयन भी/
जीवन तुम्हारा
प्रलय भी तुम्हें समर्पित /
यदि सृजनहित,
इस सृष्टि में;
कुछ दखल हो तो—
यह सब अस्मिता के लिये/
कुछ तैमूर, चंगेज
यदि रौंदे भू को, भारती को, भविष्यत् को,
तो/ हम उत्तर देंगें/
हमेशा की तरह/
                (बुद्ध पूर्णिमा 11मई1998 के पोखरण विस्फोट पर)     ...12,05,1998

Sunday 7 September 2014

हे ईश्वर ..तू है।

हे ईश्वर
मैं नहीँ जानता
वेद, उपनिषद
और तेरे रचाए
दर्शन,
मैं क्यों अपनी
छोटी बुद्धि में
इन सबको झेलूं
कि ये सब
मनुष्य को
किंकर्तव्यविमूढ़ता में
धकेलने के
तेरे हीं औजार हैं/
तुझ पर अनास्था का भी
प्रश्न नहीं
क्योंकि
इस विषमता भरी
सृष्टि का तू हीं
जिम्मेदार है/
तू खुद को अभिव्यक्त
करने के चक्कर में
बना बैठा
यह विषमता भरी सृष्टि /
यह तेरा अपराध है/
मैं नहीं करूँगा
तेरा यशगान
न गाऊंगा
तेरी बिरूदावलियाँ
क्योंकि लगता है
तू इन्हीं का भूखा है/
तूने व्यक्त होकर
रचा संसार
विषमताओं के विष से
भरा/
तो मैं भी सिरजूंगा
वैसी हीं
हलाहल भरी कविताएँ
विषमताओं के विषदंश देती /
जो तुझे चुभे
वेदना दे तुझे
जैसी पीड़ा से मैं गुजरा
उसका कुछ अंश
हीं सहीं
तू भी झेले
केवल नास्तिक होकर
तुझे नकारना/
—मैं मानता हूं
होगा पलायन
इसलिये तुझे स्वीकरता हूं
नकारने के लिये/
—मैं मानता हूं
तू है/
.....
30,08,2014 

Saturday 6 September 2014

आविर्भाव

एक ऐसे समय में
जबकि मानव के मन में
बैठा  है संत्रास,
भय और भूख
हर तरफ हाहाकार/
सूरज खुद अँधेरे को
उगलने का स्रोत हो
किससे करें स्तोत्र रचकर
जगाने की कल्पना/
औरों में नायक की तलाश
संक्रमित समय में
शिखंडी और शकुनि के चरित्र
संक्रमण करे एक दूजे का
और पैदा करने लगे
हर तरफ अविश्वास, छल
और पद का व्यामोह/
पैदा करें
क्रांति की
यज्ञशाला में अवतारी रूद्र
जो ध्वंस करे समस्याओं का/
लेकिन हवनकुंड भी
उगले क्षुद्र स्वार्थों के
पिशाच
तो फिर
हे कवि,
न डिगे धैर्य
न चुके विश्वास
न रूके व्रत
न झुके प्रण
छोड़ सूरज शिखंडी और शकुनि को
लिख ऋचा सम कविता
कर आवाहन मंत्र सम भावों का
कि जिससे
और कहीं नहीं
खुद अपने अंदर
जागे
तंद्रा में सोयी
मानवता
हो अभ्युदय देवत्व का
किसी बड़ी क्रांति का/
विश्वास चुक गया हो
तो हर मन के अंदर
एक बड़ी क्रांति का
आवाहन संभाव्य है/
कर्म
कई बड़े रूढ़ धर्मो को
दिशा देगा/
अर्थ बदल जाएँगे
उन श्लोकों की आवृतियों के
कि —
हर मन पर
जन की विजय का
होगा शंखनाद
गण करेगा
विश्वास के सेतु का निर्माण
आओ कवि
गाएँ गीता
कि हम खुद अपने
प्रति विश्वास का माहौल तैयार करें
कर्म साथ हो
लगन विश्व निष्ठा की
एक दूध मुंही बेटी
                सुरक्षित हो
एक पेड़ हमारे सामने
न कटे
तो बिखरी पत्तियाँ भी
राह का श्रंगार होंगी/
एक नदी हमसे सहमें ना/
अपनी धरती पर
ओबामा और ओसामा की
थूकने की कोशिश को
हम विफल करेंगें/
                   03-09-2014

Thursday 4 September 2014

इतिहास

इतिहास
विजेता की विजयाभिलाषा का
प्रशस्तिगान हैै /
विरूदावली  फेफड़ों को देती है,
जीने की ताकत
इतिहास को/
यह नहीं है हारे हुए लोगों की चित्कार का करूण क्रंदन/
या कि कब्रों से वंचित
लथपथ शवों पर विदा गीत/
इतिहास की आँख
केवल
अर्जुन की तरह चिड़ियाँ की
आँख देखती है
नहीं देखता
इतिहास
काल की गणना/
वह काल को केवल
सीढ़ी समझता है
जो चढ़नेे नहीं
उतरने के काम आती है
जो तहखानों की ओर ले जाती है
अँधेरी घुप्प गुफा/

इतिहास
मशाल का नहीं
अब तो दीये का काम भी
नहीं करता/
और इतिहासकार
छाती पीटने वाली किराये की
रूदालियां
अलग अलग गांवों/ खेमों की।
       02:09:2014

Wednesday 3 September 2014

भोजन का अधिकार

सफेद पोश बगुला
यदि मछलियाँ खाता है
तो सिस्टम है
लेकिन
मछलियां क्रांति कर दे
अपनी आत्मरक्षा के लिये
तो
बगुले की भूख के विरूद्ध यह
षड़यंत्र है।
इसलिये
नभचरों के हित में
सेक्युलर स्थलचरों की
जलचरों के विरूद्ध
आवाज है
जहाँगीरी घंटा तैयार है
बजने के लिये/
तैयार हो जाओ ओ शासक
तख्ता पलट कभी भी
हो सकता है।
संविधान में प्रदत्त
भोजन का अधिकार नभचरों पर
(हीं) लागू है!
            03:09:2014

Tuesday 2 September 2014

गंगोत्री के पथ पर—गजेंद्र पाटीदार

नदी होना कितना
दुष्कर है/
चट्टानों की छाती चीर
निकलना/
हिम की जड़ता से बिलग हो
चल पड़ना/
झेलना गहन वन प्रांतर
का सूनापन/
भरना उनमें
अपना कलकल नाद/
पहाड़ों, खाइयों,  वृक्षों -बीहड़ों की
जड़ता के विरूद्ध/
चलना अथक चलना
गुनगुनाना एकांत एकालाप/
स्वीकारना सबके
मल, मैल और पाप/
पावन करना सबको
झेलकर खुद अभिशाप/
करना प्रतिक्रमण
बिना ठहरे
सिरजना रेत
नये निर्माण का बीज
और महामिलन
अपना सब कुछ
अस्तित्व और अनस्तित्व का
चरम
सौंपकर सागर को/
दुष्कर है/
गंगोत्री का पथ/
       —
नारी होना कितना
दुष्कर है/
गंगोत्री के पथ पर/
पहाड़ों का बोझ उठाना
अपने नन्हें कंधों पर
लकड़ी का गट्ठर हो
या घास का बोझा
सब नारी के कंधों पर
सवार होकर
हीं
संस्कृति को सँवारते हैं/
पहाड़ों का नीरव सूनापन
अंतस की उर्मियों का
करूण क्रंदन/
उसके पुरखों सरीखे
चीड़ और देवदारू भी
रहकर मौन
दुलारते हैं/
पानी और जवानी
की उर्वरता
लुटाकर पहाड़ी नारी
मैदानों को/
खुद कितनी अनुर्वरता
का अभिशाप लेकर
जीती है, गढ़वाली पहाड़ों की गहराइयों में/
अस्तित्व और अनस्तित्व का चरम
सौंपकर संसार को/
दुष्कर है
नारी का पथ/
गंगोत्री के पथ पर/
                       दि. 02:09:2014

Monday 1 September 2014

थर्ड एम्पायर


ईजराइल की तोपों की
दहाड़ से पैदा मौतों के
रक्तबीज
अखबार के पन्नों
और टीवी स्क्रीन के
माध्यम से
मेरे घर तक पहुँचकर
डरा रहे है मेरी कोमल भावनाओं को/
इराक की नृशंसता भी
वैसे हीं
और उतने हीं
रक्तबीज पैदा करती है/
आहत करती है सभी
मानवता के पक्षधरों को/
लेकिन कुछ पक्षधरों की चीख
कभी तो
आसमान उठा लेती है/
और कभी मिमीया जाती है
बली में कटते मेंमने की तरह /
मौतों में फर्क क्यों करते है?
ये थर्ड एम्पायर ।

Wednesday 27 August 2014

गिलहरी

गाँव की कच्ची सड़क पर
दौड़ते दुपहिया वाहनों
और आवाजाही के बीच
अपने लिए दानें जुटाना
एक गिलहरी के लिए
कितना बड़ा काम है?
कि इसके लिए प्राणों की
आहुति देनी पड़ती है
उस गिलहरी को/
खतरा देखते हीं
नीम की पुरानी खोखर मेँ
विलुप्त हो जाना
उस गिलहरी का/
काश सेतु बांधनें के
अकिंचन कार्य के पुरस्कार में
मिली पीठ की तीन धारियों
की जगह उसनें मांग लिये होते
दो पंख!
बना दिया
बगैेर पंखों का पंछी
उस गिलहरी को/
ऐसा सोचती है गिलहरी
जब कभी नवजात
असुरक्षित हो/
और कभी
दौड़ती कच्ची सड़क के बीच
दाना ढूँढने की कोशिश
जान हीं ले ले/
तो नीम की खोखर मेँ
क्या करेंगें नवजात?
सोचती है गिलहरी /
इसीलिए दौड़ती सड़क की दुर्घटना में
मर कर भी एक सोच
दे जाती है
गिलहरी
नन्हीं परी सी/
            11,08,2014

Friday 9 May 2014

मंत्रोच्चार

क्या कभी हमने सुनें है,
शब्द मंत्रों के/
क्या कभी उन अर्थ को गहरे निबाहा?
ले पुष्प हाथों में खड़े हो पंक्ति बद्ध,
हमने बस भावनाओं को अर्पित किया/
उन चरणों में जो
स्रोत है मंत्रों का/
जो हमें देता  है शब्द
अर्थ
और करता है सार्थक/
हमारा मंत्रोच्चार हमें खुद गढ़ता है/
हम नहीं रचते मंत्रों को,
मंत्र हमें रचते है/


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