महसूस कर रहा हूँ
सागर को देख कर/
इतना खारापन आखिर
पीढ़ा के घनीभूत उच्छ्वास का
तारल्य तो नहीं......
संभव है/
संभव है सागर के किनारे
रेत का सैलाब
कितने मरूओं को
पाले अंक में अपने
कितनी मरीचिकाओं का
अपराधी है ।
मन के भाव शब्दों में ढलकर जब काव्य रूप में परिणित होकर लेखन की भूमि पर बोये जाते है, तो अंकुरित हरितिमा सबको मुकुलित करती है! स्वागत है आपका इस काव्य भूमि पर.....।
मुझे मालूम है
मृत्यु जीवन का
अनिवार्य
और
अंतिम सत्य है/
फिर भी
मृत्यु के विरूद्ध
जीवन
कितने षड़यंत्र करता है?
मुझमें भी
अमरत्व की भूख
इतनी बढ़ चुकी है कि
मरना भूल चुका हूँ/
अमरता भूख है
और मौत भय/
(भय को भुलाना
भी षड़यंत्र है)
भय को भूलना
जरूरी है,
संभवत:
जीवन की मजबूरी/
इस तरह
भय और भूख
के बीच
जीवन
'रोप-वे'/
दि.12-10-14
मैं जनतंत्र का 'जन'
तंत्र से जुदा
सुनता हूँ
गणतंत्र चार स्तंभों पर खड़ा है
मैं देखता हूँ ।
पर मुझे बताया गया है
ये चार स्तंभ हाथी के पांव जैसे है।
इन चार स्तंभों को स्वीकार करने के लिये
मुझे अंधा होना चाहिये।
े
यदि मैंने देखे
इस गणतंत्र के पैरों को
'चौपाये' की तरह
तो यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का
बेज़ा इस्तेमाल होगा!
देश में कानून का राज है
राष्ट्र की सुरक्षा
राष्ट्रवासियों से ऊपर है!
यदि 'चौपाये' के पैरों को
मैंने कहा 'लंगड़ा'
तो इसे सिद्ध करने की जिम्मेदारी
संविधान ने मुझ पर सौंपी है
यह चौपाया जिसे चलाने के चक्कर नें
'नाल' ठुकवाई गई है
ताकि चौपाये का लंगड़ापन
लील जाए 'नाल'
पर नाल है कि
पैर से उखड़ कर दूसरे पैर को
घायल कर रही है
गणतंत्र को लंगड़ाना है
मैं आश्वस्त हूँ
कि मैं इस चौपाये की खींची
गाड़ी में बैठा हूँ
ये कहीं पहुँचे
न पहुँचे
सूत्रधार
इस मर्म को जानता है
कि मंच पर चौपाये को चलाने का
तरीका यह भी है कि-
नैपथ्य की यवनिका को पीछे की तरफ
खींचा जाए
गणतंत्र आगे
चलता हुआ महसूस होगा।
01-10-14
पाँच सहस्त्राब्दियाँ बीती
विरहिणी क्रौंची को
विरहाकुल आलाप करते
आखिर कब तक
बाँधे रखेंगे
उसे जड़ता में?
कब निकलेगी गहन कुहेलिका से?
सदियों के विस्तार ने
अपने मानक बदल लिये है/
आस्थाएं बदली है/
देवता बदल लियेे है/
फिर क्रौंची की मर्मान्तक कराह
कराल काल की राह पर
क्यों न खोज पाई
अपना दूसरा प्रेम?
क्यों उसके पाषाण हृदय से
फूट न पाया प्रेम का निर्झर?
आओ हम क्रौंची की कराह को सराहें नहीं/
सान्त्वना दें/
बंधन खोलें उसके
फिर से आकाश में उड़ने का/
सोचें
निषाद के हाथों वध हो गया होता
यदि क्रौंची का!
तो कितने दिन एकाकी विचरता क्रौच?
क्या वह नैन मटक्का नहीं करता?
आखिर हमारी सभी वर्जनाएँ मादा पर हीं
क्यों लागू होती है?
आखिर क्यों?
29-09-14
छोटा आदमी
हाड़ तोड़कर
अपने पसीने से पैसा बनाता है!
बड़ा आदमी पैसा नहीं बनाता
पैसा बड़ा आदमी बनाता है
छोटा आदमी
पैसा बनाने में
छोटा हीं रह जाता है!
कौंन बुनता होगा सपने?
मैं उस सपनों के विधाता से मिलना चाहता हूँ /
कैसा होगा वह सपनों का आर्किटेक्ट?
जो संसार को सपने देकर खुद जाग रहा है—
तुममें, हममें, सबमें/
क्या सपने नियति है या नियति स्वप्न है?
सोचता हूँ /
पर अच्छा होगा
उस सपनों के देवता को जागनें दूँ और खुद सो जाऊं
एक सपना जीने के लिये/
एक सपना पूर्ण होता है अपने आप में एक जीवन की तरह/
हम एक जीवन जाएँ या एक सपना, बराबर है!
21 वीं सदी के भौतिकतावादी समय के
नवहस्ताक्षर
भौतिकता के पुनर्जागरण काल के
उन्नायक
नहीं समझते कि
दुनिया के पार भी एक दुनिया हैं, मेले हैं/
'वे'
सब चार्वाक के चेले है/
—" जो है, यहीं है; यहाँ नहीं वह कहीं नहीं" के सूत्र के सूत्रधार
जीवन को क्षणभंगुर मानकर
करते हैं व्यवहार /
'डिनर' की टेबल पर
जीवन की नश्वरता पर
करते हैं चर्चा
पर टेबल की प्लेट में रखा.....
उस मुर्गे से ज्यादा क्षणभंगुरता का मतलब कौन समझता है?
इस क्षणभंगुरता में इतवार के मानी
अलग नहीं होते?
खुद से पूछता हूँ /
माँ
आज मेरा मन तुम्हारे साथ उठकर
तुम्हारी तरह
कोल्हू का बैल बनकर
जुतने का नहीं है/
नहीं करूंगी चूल्हा,
चौका और बर्तन घिसने का काम
कपड़े, लत्ते
गाय का दूध
बैलों की चिन्ता
चारा, पानी सब कुछ
आखिर सदियों से
तुमने इन सबमें
मुझे झोका है मां/
आज देर तक सोऊंगी
भैया की तरह
अपने घर विदा होने से पहले
तेरे आँचल में
मैं सुकून से सो लेना चाहती हूं/
मेरे हिस्से का सपना
छोड़कर
जाना नहीं चाहती/
जीवन के कड़वे यथार्थ
का सामना करने से पहले
अपने हिस्से की नींद
लेकर जाना चाहती हूँ /
वरना सदियों की नींद जो तुम्हारे पास
पेटी में बंद है
किसी गुड़िया की तरह
या मुझ नवजात के कपड़े
बित्ते भर के/
रह हीं जाएँगे तेरे पास
फिर अनंत काल के लिए ।
——10,09,2014
एक ऐसे समय में
जबकि मानव के मन में
बैठा है संत्रास,
भय और भूख
हर तरफ हाहाकार/
सूरज खुद अँधेरे को
उगलने का स्रोत हो
किससे करें स्तोत्र रचकर
जगाने की कल्पना/
औरों में नायक की तलाश
संक्रमित समय में
शिखंडी और शकुनि के चरित्र
संक्रमण करे एक दूजे का
और पैदा करने लगे
हर तरफ अविश्वास, छल
और पद का व्यामोह/
पैदा करें
क्रांति की
यज्ञशाला में अवतारी रूद्र
जो ध्वंस करे समस्याओं का/
लेकिन हवनकुंड भी
उगले क्षुद्र स्वार्थों के
पिशाच
तो फिर
हे कवि,
न डिगे धैर्य
न चुके विश्वास
न रूके व्रत
न झुके प्रण
छोड़ सूरज शिखंडी और शकुनि को
लिख ऋचा सम कविता
कर आवाहन मंत्र सम भावों का
कि जिससे
और कहीं नहीं
खुद अपने अंदर
जागे
तंद्रा में सोयी
मानवता
हो अभ्युदय देवत्व का
किसी बड़ी क्रांति का/
विश्वास चुक गया हो
तो हर मन के अंदर
एक बड़ी क्रांति का
आवाहन संभाव्य है/
कर्म
कई बड़े रूढ़ धर्मो को
दिशा देगा/
अर्थ बदल जाएँगे
उन श्लोकों की आवृतियों के
कि —
हर मन पर
जन की विजय का
होगा शंखनाद
गण करेगा
विश्वास के सेतु का निर्माण
आओ कवि
गाएँ गीता
कि हम खुद अपने
प्रति विश्वास का माहौल तैयार करें
कर्म साथ हो
लगन विश्व निष्ठा की
एक दूध मुंही बेटी
सुरक्षित हो
एक पेड़ हमारे सामने
न कटे
तो बिखरी पत्तियाँ भी
राह का श्रंगार होंगी/
एक नदी हमसे सहमें ना/
अपनी धरती पर
ओबामा और ओसामा की
थूकने की कोशिश को
हम विफल करेंगें/
03-09-2014
इतिहास
विजेता की विजयाभिलाषा का
प्रशस्तिगान हैै /
विरूदावली फेफड़ों को देती है,
जीने की ताकत
इतिहास को/
यह नहीं है हारे हुए लोगों की चित्कार का करूण क्रंदन/
या कि कब्रों से वंचित
लथपथ शवों पर विदा गीत/
इतिहास की आँख
केवल
अर्जुन की तरह चिड़ियाँ की
आँख देखती है
नहीं देखता
इतिहास
काल की गणना/
वह काल को केवल
सीढ़ी समझता है
जो चढ़नेे नहीं
उतरने के काम आती है
जो तहखानों की ओर ले जाती है
अँधेरी घुप्प गुफा/
इतिहास
मशाल का नहीं
अब तो दीये का काम भी
नहीं करता/
और इतिहासकार
छाती पीटने वाली किराये की
रूदालियां
अलग अलग गांवों/ खेमों की।
02:09:2014
सफेद पोश बगुला
यदि मछलियाँ खाता है
तो सिस्टम है
लेकिन
मछलियां क्रांति कर दे
अपनी आत्मरक्षा के लिये
तो
बगुले की भूख के विरूद्ध यह
षड़यंत्र है।
इसलिये
नभचरों के हित में
सेक्युलर स्थलचरों की
जलचरों के विरूद्ध
आवाज है
जहाँगीरी घंटा तैयार है
बजने के लिये/
तैयार हो जाओ ओ शासक
तख्ता पलट कभी भी
हो सकता है।
संविधान में प्रदत्त
भोजन का अधिकार नभचरों पर
(हीं) लागू है!
03:09:2014
नदी होना कितना
दुष्कर है/
चट्टानों की छाती चीर
निकलना/
हिम की जड़ता से बिलग हो
चल पड़ना/
झेलना गहन वन प्रांतर
का सूनापन/
भरना उनमें
अपना कलकल नाद/
पहाड़ों, खाइयों, वृक्षों -बीहड़ों की
जड़ता के विरूद्ध/
चलना अथक चलना
गुनगुनाना एकांत एकालाप/
स्वीकारना सबके
मल, मैल और पाप/
पावन करना सबको
झेलकर खुद अभिशाप/
करना प्रतिक्रमण
बिना ठहरे
सिरजना रेत
नये निर्माण का बीज
और महामिलन
अपना सब कुछ
अस्तित्व और अनस्तित्व का
चरम
सौंपकर सागर को/
दुष्कर है/
गंगोत्री का पथ/
—
नारी होना कितना
दुष्कर है/
गंगोत्री के पथ पर/
पहाड़ों का बोझ उठाना
अपने नन्हें कंधों पर
लकड़ी का गट्ठर हो
या घास का बोझा
सब नारी के कंधों पर
सवार होकर
हीं
संस्कृति को सँवारते हैं/
पहाड़ों का नीरव सूनापन
अंतस की उर्मियों का
करूण क्रंदन/
उसके पुरखों सरीखे
चीड़ और देवदारू भी
रहकर मौन
दुलारते हैं/
पानी और जवानी
की उर्वरता
लुटाकर पहाड़ी नारी
मैदानों को/
खुद कितनी अनुर्वरता
का अभिशाप लेकर
जीती है, गढ़वाली पहाड़ों की गहराइयों में/
अस्तित्व और अनस्तित्व का चरम
सौंपकर संसार को/
दुष्कर है
नारी का पथ/
गंगोत्री के पथ पर/
दि. 02:09:2014
ईजराइल की तोपों की
दहाड़ से पैदा मौतों के
रक्तबीज
अखबार के पन्नों
और टीवी स्क्रीन के
माध्यम से
मेरे घर तक पहुँचकर
डरा रहे है मेरी कोमल भावनाओं को/
इराक की नृशंसता भी
वैसे हीं
और उतने हीं
रक्तबीज पैदा करती है/
आहत करती है सभी
मानवता के पक्षधरों को/
लेकिन कुछ पक्षधरों की चीख
कभी तो
आसमान उठा लेती है/
और कभी मिमीया जाती है
बली में कटते मेंमने की तरह /
मौतों में फर्क क्यों करते है?
ये थर्ड एम्पायर ।
गाँव की कच्ची सड़क पर
दौड़ते दुपहिया वाहनों
और आवाजाही के बीच
अपने लिए दानें जुटाना
एक गिलहरी के लिए
कितना बड़ा काम है?
कि इसके लिए प्राणों की
आहुति देनी पड़ती है
उस गिलहरी को/
खतरा देखते हीं
नीम की पुरानी खोखर मेँ
विलुप्त हो जाना
उस गिलहरी का/
काश सेतु बांधनें के
अकिंचन कार्य के पुरस्कार में
मिली पीठ की तीन धारियों
की जगह उसनें मांग लिये होते
दो पंख!
बना दिया
बगैेर पंखों का पंछी
उस गिलहरी को/
ऐसा सोचती है गिलहरी
जब कभी नवजात
असुरक्षित हो/
और कभी
दौड़ती कच्ची सड़क के बीच
दाना ढूँढने की कोशिश
जान हीं ले ले/
तो नीम की खोखर मेँ
क्या करेंगें नवजात?
सोचती है गिलहरी /
इसीलिए दौड़ती सड़क की दुर्घटना में
मर कर भी एक सोच
दे जाती है
गिलहरी
नन्हीं परी सी/
11,08,2014
क्या कभी हमने सुनें है,
शब्द मंत्रों के/
क्या कभी उन अर्थ को गहरे निबाहा?
ले पुष्प हाथों में खड़े हो पंक्ति बद्ध,
हमने बस भावनाओं को अर्पित किया/
उन चरणों में जो
स्रोत है मंत्रों का/
जो हमें देता है शब्द
अर्थ
और करता है सार्थक/
हमारा मंत्रोच्चार हमें खुद गढ़ता है/
हम नहीं रचते मंत्रों को,
मंत्र हमें रचते है/