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Saturday 6 September 2014

आविर्भाव

एक ऐसे समय में
जबकि मानव के मन में
बैठा  है संत्रास,
भय और भूख
हर तरफ हाहाकार/
सूरज खुद अँधेरे को
उगलने का स्रोत हो
किससे करें स्तोत्र रचकर
जगाने की कल्पना/
औरों में नायक की तलाश
संक्रमित समय में
शिखंडी और शकुनि के चरित्र
संक्रमण करे एक दूजे का
और पैदा करने लगे
हर तरफ अविश्वास, छल
और पद का व्यामोह/
पैदा करें
क्रांति की
यज्ञशाला में अवतारी रूद्र
जो ध्वंस करे समस्याओं का/
लेकिन हवनकुंड भी
उगले क्षुद्र स्वार्थों के
पिशाच
तो फिर
हे कवि,
न डिगे धैर्य
न चुके विश्वास
न रूके व्रत
न झुके प्रण
छोड़ सूरज शिखंडी और शकुनि को
लिख ऋचा सम कविता
कर आवाहन मंत्र सम भावों का
कि जिससे
और कहीं नहीं
खुद अपने अंदर
जागे
तंद्रा में सोयी
मानवता
हो अभ्युदय देवत्व का
किसी बड़ी क्रांति का/
विश्वास चुक गया हो
तो हर मन के अंदर
एक बड़ी क्रांति का
आवाहन संभाव्य है/
कर्म
कई बड़े रूढ़ धर्मो को
दिशा देगा/
अर्थ बदल जाएँगे
उन श्लोकों की आवृतियों के
कि —
हर मन पर
जन की विजय का
होगा शंखनाद
गण करेगा
विश्वास के सेतु का निर्माण
आओ कवि
गाएँ गीता
कि हम खुद अपने
प्रति विश्वास का माहौल तैयार करें
कर्म साथ हो
लगन विश्व निष्ठा की
एक दूध मुंही बेटी
                सुरक्षित हो
एक पेड़ हमारे सामने
न कटे
तो बिखरी पत्तियाँ भी
राह का श्रंगार होंगी/
एक नदी हमसे सहमें ना/
अपनी धरती पर
ओबामा और ओसामा की
थूकने की कोशिश को
हम विफल करेंगें/
                   03-09-2014