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Tuesday 2 September 2014

गंगोत्री के पथ पर—गजेंद्र पाटीदार

नदी होना कितना
दुष्कर है/
चट्टानों की छाती चीर
निकलना/
हिम की जड़ता से बिलग हो
चल पड़ना/
झेलना गहन वन प्रांतर
का सूनापन/
भरना उनमें
अपना कलकल नाद/
पहाड़ों, खाइयों,  वृक्षों -बीहड़ों की
जड़ता के विरूद्ध/
चलना अथक चलना
गुनगुनाना एकांत एकालाप/
स्वीकारना सबके
मल, मैल और पाप/
पावन करना सबको
झेलकर खुद अभिशाप/
करना प्रतिक्रमण
बिना ठहरे
सिरजना रेत
नये निर्माण का बीज
और महामिलन
अपना सब कुछ
अस्तित्व और अनस्तित्व का
चरम
सौंपकर सागर को/
दुष्कर है/
गंगोत्री का पथ/
       —
नारी होना कितना
दुष्कर है/
गंगोत्री के पथ पर/
पहाड़ों का बोझ उठाना
अपने नन्हें कंधों पर
लकड़ी का गट्ठर हो
या घास का बोझा
सब नारी के कंधों पर
सवार होकर
हीं
संस्कृति को सँवारते हैं/
पहाड़ों का नीरव सूनापन
अंतस की उर्मियों का
करूण क्रंदन/
उसके पुरखों सरीखे
चीड़ और देवदारू भी
रहकर मौन
दुलारते हैं/
पानी और जवानी
की उर्वरता
लुटाकर पहाड़ी नारी
मैदानों को/
खुद कितनी अनुर्वरता
का अभिशाप लेकर
जीती है, गढ़वाली पहाड़ों की गहराइयों में/
अस्तित्व और अनस्तित्व का चरम
सौंपकर संसार को/
दुष्कर है
नारी का पथ/
गंगोत्री के पथ पर/
                       दि. 02:09:2014