नदी होना कितना
दुष्कर है/
चट्टानों की छाती चीर
निकलना/
हिम की जड़ता से बिलग हो
चल पड़ना/
झेलना गहन वन प्रांतर
का सूनापन/
भरना उनमें
अपना कलकल नाद/
पहाड़ों, खाइयों, वृक्षों -बीहड़ों की
जड़ता के विरूद्ध/
चलना अथक चलना
गुनगुनाना एकांत एकालाप/
स्वीकारना सबके
मल, मैल और पाप/
पावन करना सबको
झेलकर खुद अभिशाप/
करना प्रतिक्रमण
बिना ठहरे
सिरजना रेत
नये निर्माण का बीज
और महामिलन
अपना सब कुछ
अस्तित्व और अनस्तित्व का
चरम
सौंपकर सागर को/
दुष्कर है/
गंगोत्री का पथ/
—
नारी होना कितना
दुष्कर है/
गंगोत्री के पथ पर/
पहाड़ों का बोझ उठाना
अपने नन्हें कंधों पर
लकड़ी का गट्ठर हो
या घास का बोझा
सब नारी के कंधों पर
सवार होकर
हीं
संस्कृति को सँवारते हैं/
पहाड़ों का नीरव सूनापन
अंतस की उर्मियों का
करूण क्रंदन/
उसके पुरखों सरीखे
चीड़ और देवदारू भी
रहकर मौन
दुलारते हैं/
पानी और जवानी
की उर्वरता
लुटाकर पहाड़ी नारी
मैदानों को/
खुद कितनी अनुर्वरता
का अभिशाप लेकर
जीती है, गढ़वाली पहाड़ों की गहराइयों में/
अस्तित्व और अनस्तित्व का चरम
सौंपकर संसार को/
दुष्कर है
नारी का पथ/
गंगोत्री के पथ पर/
दि. 02:09:2014
मन के भाव शब्दों में ढलकर जब काव्य रूप में परिणित होकर लेखन की भूमि पर बोये जाते है, तो अंकुरित हरितिमा सबको मुकुलित करती है! स्वागत है आपका इस काव्य भूमि पर.....।
Tuesday 2 September 2014
गंगोत्री के पथ पर—गजेंद्र पाटीदार
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