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Tuesday 14 July 2020

स्वतंत्रता और वामपंथ

कुछ वामपंथी लोग अभी भारत चीन मामले में कुछ ज्यादा ही तनाव में लग रहे हैं। वे निरंतर सरकार पर प्रश्नों की झड़ी लगाकर उत्तर चाहते हैं। उनकी चिन्ता देश के लिए कम और चीन के लिए ज्यादा लग रही है। वे बार बार सरकार पर तीखे हमले कर भीतर से मारने के लिए प्रयासरत हैं। वे आम लोगों के मस्तिष्क में एक 'बू' भरने के लिए निरंतर लगे हुए हैं। उनके कथन कुछ यों होते हैं - 'भारत ने सभी पड़ोसी देशों के साथ गलत नीति रखी। परिणामस्वरूप भारत से सब नाराज हैं।'

मुझे लगता है कि देशों के मामले में कोई चरम स्थिति कुछ भी नहीं होती। न विकास अंतिम, न शक्ति अंतिम, न सत्ता अंतिम, न स्वतंत्रता अंतिम, न समानता अंतिम और न बंधुत्व अंतिम होता है। यदि ऐसा होता तो सर्वोच्च सर्वेसर्वा अमेरिका आज परेशान होता? कल जबकि अमेरिका का स्वतंत्रता दिवस था फिर भी प्रदर्शनकारी किसी न किसी बहाने झंडे डंडे लेकर उतर गए... सड़कों पर। यह देख मुझे लगा कि किसी भी देश की चरम स्थिति का कोई तय बिन्दु नही है। मैं एक पोस्ट लिखकर चाहता हूँ कि उसे अधिक से अधिक लोग पढ़ें, तो फिर संसार के इतने देशों के इतने अरब लोगों की इच्छा और आवश्यकता का अंत कहाँ? कौन है जो कल सब कुछ ठीक के लिए आश्वस्त होगा?

अमेरिका जैसा देश जो स्वतंत्रता के लिए हमारे प्रथम - स्वतंत्रता संग्राम से भी पौन सदी पहले लड़ा और जीता। आज ढाई सौ वर्ष की स्वतंत्रता जी चुकने के बाद अब समानता के संघर्ष से परेशान है। जबकि मेरा मानना है कि स्वतंत्रता और समानता परस्पर विरोधी ही रहेगी। जहाँ स्वतंत्रता होगी वहाँ समानता कैसे संभव है? जब तक अनुशासित स्वतंत्रता नही होती तब तक समानता नही हो सकती। अनुशासन है तो फिर स्वतंत्रता बाधित है।

ईश्वर ने संसार के सभी लोगों को समान क्यों नहीं बनाया? यदि ईश्वर संसार को समान बनाना चाहता तो मनुष्य की मुखाकृति में ही समानता रख देता। (जो ईश्वर को नही मानते वे ईश्वर की जगह प्रकृति पढ़ें) उंगलियों के निशान समान होते। लेकिन समानता प्रकृति का साध्य नही है। एक हाथ में पांच उंगलियाँ समान नही है, एक परिवार में सबके अधिकार और कर्तव्य समान नही है। तो विशाल विश्व में समानता की आशा करना ढोंग से अधिक कुछ नहीं।

जिन देशों में समानता का अधिकार कानून मुहैया करवाता है क्या वहाँ राष्ट्रपति से लेकर चपरासी की तनख्वाह समान है? कानून की नजर में सब बराबर कहने वाली सूक्ति के नीचे एक ही तरह के अपराध के लिए कोई सजा भोगता है और कोई छूट कर भाग निकलता है 'नो वन कील्ड जेसिका!'

समानता का मतलब 'सरकार सभी को मुफ्त भोजन दे दिया करे' होगा तो अन्न का उत्पादन कौन करेगा और क्यों करेगा? यदि अधिक पैसा कमाने की लालसा ही न होगी तो आदमी दिन-रात खटेगा क्यों? दारू पीकर सड़कों पर पड़े रहने का ही सुख वह भी उठाए! यदि लोकतंत्र का तात्पर्य वोट के बदले मुफ्तखोरी है तो उस राष्ट्र को शीघ्र पराधीन होने से कोई नही रोक सकता। क्रूर और तानाशाही व्यवस्थाएँ ऐसे देश को लील लेती है।

संतुष्ट कोई नहीं है। कल ही अमेरिका के बारे में मित्र ने चर्चा करते हुए बताया कि अमेरिका कानून माफिया से त्रस्त है तो भारत अपराध माफिया से त्रस्त है। व्यवस्था यदि जनचेतना में नही है तो फिर परेशान होना ही पड़ेगा। हर आदमी सुविधा के लिए लालायित है। हर बड़ी सुविधा के लिए उसके स्वप्न समाप्त नही होते। जिसे सबकुछ मिल चुका होता है वह भी आत्महत्या कर रहा है तो फिर अंतिम सत्य क्या?

कुछ लोग भारत की चिन्ता को लेकर आशंका प्रकट करते हैं कि संसार के कोई देश उसका साथ नही देंगे! अमेरिका, ब्रिटेन, रूस, आस्ट्रेलिया आदि कोई नहीं। बिलकुल हो सकता है कि कोई साथ न दे। हर आदमी अपना लाभ पहले देखता है तो फिर देश बेवकूफ़ लोगों का दड़बा थोड़ी होता है! लेकिन क्या हमें अपने हक के लिए संघर्ष नही करना चाहिए? दूसरा हमें धोखा देगा यह सोचकर घर बैठे रहने से तो लोग अर्थी को काँधा भी नहीं देते। स्वतंत्रता, समानता ये सब दार्शनिक चोंचले हैं। हमें अपने देश और अपने कर्तव्य पर अडिग रहकर ही जो लभ्य होगा वह मिल सकता है। बगैर न्यौता दिये शत्रु यदि घर का दरवाजा तोड़ने खड़ा हो तो परिवार में एक दूसरे पर आरोप करना केवल मूर्खता नही धूर्तता भी कहलाता है। धूर्तता से भरे मूर्ख लोगों को विश्व सम्मान नही देता।