Search This Blog

Sunday 2 December 2012

लाक्षागृह

अपने अपने लाक्षागृह/
हर किसी को दहना पड़ता है/
हर किसी को निकलना पड़ता है/
पतली सुरंग से/
दूर जंगल तक चली जाती है वह/
मनुष्य को सुरक्षित छोड़ने के लिये/
जब गृह लाक्षागृह बन जाय/
तब भरोसा किया जा सकता है/
एक अदद अँधेरी गह्वर गुफा,
कुहेलिका के व्यूह सी सुरंग पर/
सुरंगे बिल और बाँबियाँ/
विचार को जन्म देती है/
सदैव सुरक्षा को मुहैया कराती है/
इस तरह मानवता के पक्ष में जाती है सुरंगे/
लेकिन लाक्षागृह भी तपाता और निखारता है युधिष्ठिर को/
उसके शूल और शील दोनों को धार देता है/
लाक्षागृह कभी भी दुर्योधन को सुयोधन नहीं बनाता/
लेकिन युधिष्ठिर को युधिष्ठिर के रूप में स्थापित करता है/
वारणावृत्त और विदुर दोनों जीवन की कितनी ही पहेलियाँ बुनते है/-------गजेन्द्र पाटीदार 18-04-2011