माँ
आज मेरा मन तुम्हारे साथ उठकर
तुम्हारी तरह
कोल्हू का बैल बनकर
जुतने का नहीं है/
नहीं करूंगी चूल्हा,
चौका और बर्तन घिसने का काम
कपड़े, लत्ते
गाय का दूध
बैलों की चिन्ता
चारा, पानी सब कुछ
आखिर सदियों से
तुमने इन सबमें
मुझे झोका है मां/
आज देर तक सोऊंगी
भैया की तरह
अपने घर विदा होने से पहले
तेरे आँचल में
मैं सुकून से सो लेना चाहती हूं/
मेरे हिस्से का सपना
छोड़कर
जाना नहीं चाहती/
जीवन के कड़वे यथार्थ
का सामना करने से पहले
अपने हिस्से की नींद
लेकर जाना चाहती हूँ /
वरना सदियों की नींद जो तुम्हारे पास
पेटी में बंद है
किसी गुड़िया की तरह
या मुझ नवजात के कपड़े
बित्ते भर के/
रह हीं जाएँगे तेरे पास
फिर अनंत काल के लिए ।
——10,09,2014
मन के भाव शब्दों में ढलकर जब काव्य रूप में परिणित होकर लेखन की भूमि पर बोये जाते है, तो अंकुरित हरितिमा सबको मुकुलित करती है! स्वागत है आपका इस काव्य भूमि पर.....।
Wednesday 10 September 2014
उधार नींद—गजेंद्र पाटीदार
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