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Friday 18 November 2011

हे ईश्वर ..तू है।

हे ईश्वर
मैं नहीँ जानता
वेद, उपनिषद
और तेरे रचाए
दर्शन,
मैं क्यों अपनी
छोटी बुद्धि में
इन सबको झेलूं
कि ये सब
मनुष्य को
किंकर्तव्यविमूढ़ता में
धकेलने के
तेरे हीं औजार हैं/
तुझ पर अनास्था का भी
प्रश्न नहीं
क्योंकि
इस विषमता भरी
सृष्टि का तू हीं
जिम्मेदार है/
तू खुद को अभिव्यक्त
करने के चक्कर में
बना बैठा
यह विषमता भरी सृष्टि /
यह तेरा अपराध है/
मैं नहीं करूँगा
तेरा यशगान
न गाऊंगा
तेरी बिरूदावलियाँ
क्योंकि लगता है
तू इन्हीं का भूखा है/
तूने व्यक्त होकर
रचा संसार
विषमताओं के विष से
भरा/
तो मैं भी सिरजूंगा
वैसी हीं
हलाहल भरी कविताएँ
विषमताओं के विषदंश देती /
जो तुझे चुभे
वेदना दे तुझे
जैसी पीड़ा से मैं गुजरा
उसका कुछ अंश
हीं सहीं
तू भी झेले
केवल नास्तिक होकर
तुझे नकारना/
—मैं मानता हूं
होगा पलायन
इसलिये तुझे स्वीकरता हूं
नकारने के लिये/
—मैं मानता हूं
तू है/