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Monday 26 November 2012

विडंबना


मैंने लिखा/
             मचा दी क्रांति
विचारों की,
गाड़े कीर्ति के झन्डे/
लोग उठ खडे हुए
            विप्लव के स्वर में
लेकर हाथों में झन्डे/
मैंने लिखी थीं भूख,
            लिखी थीं नग्नता,
            जिसने दी रोटी, दिए कपड़े/
जब मैंने ख़ुद को लिखा---
वह
      अब मै नहीं रहा/
अब मै पाता हूँ,
अपने आप को
उन भूखे, नंगो से जुदा
और फिर अब मै
कब से कोशिश कर रहा हूँ
                          लिखने की
मकान/
कि मुझे छत भी मिल जाएँ/
किन्तु कइयों के छप्पर
                            छिन जाने का डर है/-------गजेन्द्र पाटीदार