घुमड़ते घने काले बादलों
और बरसती
फुहार के गीत
उमगती धरती और बिजली की कौ़ध
पर गीत लिख सकता हूं।
लिख सकता हूं
लरजती भीगती तरूणी के देहबंद
पर
फिर याद आता है
बादलों के गर्जन और बिजली की चकाचौंध से
भयग्रस्त झोपड़ी के दीमक लगे
जर्जर खम्भों को कौन लिखेगा?
उड़ चुकी छपरैल से टपकता आसमान
कौन लिखेगा?
कौन लिखेगा डर से
जब्त रात के बाद
उगते सूरज का स्वागत
मुझे सूरज के ताप से पिघले
काले स्याह चेहरों का
दर्द भी लिखना है,
और लिखना है सूरज की प्रतीक्षा भी।
4/7/16
मन के भाव शब्दों में ढलकर जब काव्य रूप में परिणित होकर लेखन की भूमि पर बोये जाते है, तो अंकुरित हरितिमा सबको मुकुलित करती है! स्वागत है आपका इस काव्य भूमि पर.....।
Saturday 16 July 2016
सूरज की प्रतीक्षा
प्रवास
हमारा चालू रहा प्रवास,
गिना जिसे विश्राम, वह रहा मात्र आभास।
रण के जैसे इस मन में,
तुमको हरियल वन सा साथ लिया।
तुम्ही पिलाओगे यह सोचा तो,
जानबूझकर मृगजल पीया।
हवा कान में कहकर निकली-' फूल में कहां है बास? '
हमारा चालू रहा प्रवास।
जिन पदचिन्हों में खोजे,
पथ की दूरी के हमने मानी।
पर वापस लौट आने वालों की
यही निशानी, आखिर जानी।
अब थककर घुटने टेक रहा विश्वास।
हमारा चालू रहा प्रवास।
मूल रचना.....
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અમારો ચાલુ રહ્યો પ્રવાસ!
ગણ્યા વિસામા જેને એ તો હતો માત્ર આભાસ!
રણ જેવા આ મનમાં
લીલા વન શાં તમને સાથે લીધા,
તમે પાઓ છો તેથી તો
મેં છતે જાણતે મૃગજળ પીધાં.
હવા કાનમાં કહી ગઈ કે ફૂલમાં ક્યાં છે વાસ?
અમારો ચાલુ રહ્યો પ્રવાસ.
જે પગલાંમાં કેડી દેખી
દૂર દૂરની મજલ પલાણી;
પાછા વળનારાની પણ છે
એ જ નિશાની, આખર જાણી!
હવે થાકના ટેકે ડગલાં ભરી રહ્યો વિશ્વાસ!
અમારો ચાલુ રહ્યો પ્રવાસ!
રઘુવીર ચૌધરી
पौधा रोपें
हमने चाहा
सुख
चाहा खुश रहना
चाहा पैसा, पत्नी, बच्चे,
सब चाहा जिससे
खुद आनंद और प्रमोद से जीवन गुजरे।
चाहते रहे जीवन भर
स्वच्छ पानी, स्वच्छ हवा, पुष्ट भोजन
कभी पानी गंदा न करने की कोशिश
नहीं की,
कभी हवा को गंदा और भारी होते देख
दुखी नही हुए,
जबकि सुखी होने की पहली शर्त यही थी।
हमने दूषित किया धरती को, पानी को,
हवा को, आकाश को, सबको
पाप के भागी है हम
चलो प्रायश्चित करलें।
आओ पौधा रोपें
सारी पापमुक्ति का यज्ञ एक ही है,
चलो मिलकर धरती को
हरियाली की चूनर ओढ़ा दें।