पाँच सहस्त्राब्दियाँ बीती
विरहिणी क्रौंची को
विरहाकुल आलाप करते
आखिर कब तक
बाँधे रखेंगे
उसे जड़ता में?
कब निकलेगी गहन कुहेलिका से?
सदियों के विस्तार ने
अपने मानक बदल लिये है/
आस्थाएं बदली है/
देवता बदल लियेे है/
फिर क्रौंची की मर्मान्तक कराह
कराल काल की राह पर
क्यों न खोज पाई
अपना दूसरा प्रेम?
क्यों उसके पाषाण हृदय से
फूट न पाया प्रेम का निर्झर?
आओ हम क्रौंची की कराह को सराहें नहीं/
सान्त्वना दें/
बंधन खोलें उसके
फिर से आकाश में उड़ने का/
सोचें
निषाद के हाथों वध हो गया होता
यदि क्रौंची का!
तो कितने दिन एकाकी विचरता क्रौच?
क्या वह नैन मटक्का नहीं करता?
आखिर हमारी सभी वर्जनाएँ मादा पर हीं
क्यों लागू होती है?
आखिर क्यों?
29-09-14