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Thursday 16 July 2020

घास कथा


घास को देखकर कौन खुश नहीं होता? मनुष्य तो मनुष्य, जीव - जंतु, कीट - पतंगे सब खुश। कविवर अज्ञेय तो "हरी घास पर क्षण भर" बैठकर पुस्तक रच देते हैं। तुलसी बाबा तो हरियाली के फैलाव से डर भी जाते हैं - "हरित भूमि तृन संकुल, समुझि परहिं नहिं पंथ!" चरवाहा भी बुग्यालों पर हरियाली देख नाच और गा उठता है। वृक्ष जितने भी घने हो मगर धरती की चूनर घास ही है, धरती को घास ने जितना ढँका है उतना कभी वृक्ष ढँक नही सकता। घास के प्रकार पर बात नही है, वह दूब हो या हो कास, कुश, नल या ईक्षु (गन्ना) या कुछ भी, स्थान भेद और काल भेद में नाम कुछ भी है, मगर घास सर्वव्यापी है, सर्वकालिक भी और सार्वभौमिक भी। जहां वृक्ष पहाड़ की ऊंचाई पर जाकर धराशाई हो जाते है वहां घास इठलाते हुए पत्थरों के सिर पर अपनी पताका फहरा देती है। जहां समुद्र का विस्तार है वहां भी अपने विविध रूप में खारे जल से मैत्री कर लेती है। घास का कुछ ठीक नहीं, वह किसी साधु के घने जटा जूट में भी उग सकती है।

गेहूँ के रूप में घास ही मानव को भोज्य सामग्री की बड़ी खेप उपलब्ध करवाती है, वही बांस के रूप में मानवीय आवश्यकता की आपूर्ति का अवलंब भी घास ही है। घास के जितने रूपभेद हैं उतने ही नामभेद भी। घास के नाम तृण है, चारा है, अर्जुन है, ताण्डव है, शष्प है, खड़ है। खट भी। इधर भील जनजाति घास को आज भी खड़ ही कहती हैं। "घास लेकर आ रहा हूँ " का भीली अनुवाद यूं होगा - "खड़ ली न आवी रियो!" 

घास जैसी महत्वपूर्ण चीज जिसका न आदि है न अंत। ऐसी वस्तु को भी आदमी ने मुहावरे में याद किया तो अपमानित करके। 'घास खोदना' का भाव बेकार का काम करना जैसे लिया जाने लगा जैसे झख मारना। 'घास डालना' मुहावरा जरूर आशान्वित करता है मगर 'घास काटना' भी काम को टालते हुए निपटाने के अर्थ में प्रयोग किया जाता है। जैसे घास घास न हुई गरीब की भौजाई हो गई। 

कुल मिलाकर घास को देखकर सब खुश होते हैं पर एक ऐसा जीव है जो घास को देखकर दुखी होता है। (जिसे आजकल की शब्दावली में खरपतवार कहा जाने लगा है,) वह है किसान। किसान के दुखी होने का कारण भी है, इस घास की समय पर न निंदाई की जाय तो फसल को चौपट कर देने का श्रेय भी खुद माथे न लेगी और किसान को लंबा कर देगी। चौमासा प्रारंभ होते ही पहली समस्या घास होती है। फसल में घास ने अपना मजमा जमा लिया तो समझिए किसान कंगाल। खेत में बढ़ती घास देखकर किसान का जी धक्क से रह जाता है। यदि पानी चार, छः दिन बरसता रहे और खेत पर काम न हो पाए तो किसान की नानी मर जाती है। संसार में जितनी जनसंख्या घास को देखकर खुश होती है लगभग उतनी ही आबादी दुखी भी होती है, मगर दुखी होने वाला किसान नामक यह जीव दुख में भी सुख मना लेता है। हरियाली से उसका भी मन हरिया जाता है, हरियाली को देखकर कौन किसान है जो अपने लोक गीतों को न गाने लगे? हर देश, प्रांत, अंचल के लोक गीतों में किसान के रोपाई, निंदाई और कटाई गीत मिल जाएंगे। 

हमारे यहां तो वेदो से लेकर पुराण और महाकाव्यों में घास की महिमा बखानी गई है। ''अश्वायेव तिष्ठते घासमस्मै। (यजुर्वेद ११/७५) ब्रह्मवैवर्तपुराण में "भुवः पर्यटने यत्तु, सत्यवाक्येषु यद्भवेत्। तत् पुण्यम् लभते प्राज्ञो गोभ्यो दत्वा तृणानि च।" कहकर तृण से कमाए पुण्य का वर्णन है। ऐसा नही कि घास को केवल पशुओं के खिलाने और संबंधित पुण्य का वर्णन ही पुरासाहित्य में मिलता है। घास माध्यम के रूप में भी चर्चित रही है, वाल्मीकि रामायण में सीता रावण से चर्चा करने में घास के तृण को बीच में रखती हैं -" तृणमन्त रतः कृत्वा प्रत्युवाच शुचिस्मिता।५/२१/३) घास की महिमा वर्णन में पुराणकार दस महत्वपूर्ण घास के विविध रूपों का सम्मान के साथ वर्णन करते हैं -" कुशा: काशा यवा दूर्वा उशीराच्छ सकुन्दका:। गोधूमा ब्राह्मयो मौन्जा दश दर्भा: सबल्वजा:।।" कुश नामक घास को उखाड़ने से पूर्व क्षमा याचना हमारी संस्कृति के उच्चादर्श को प्रदर्शित करता है। प्राच्यसाहित्य तो इस बात का निर्देश भी करता है कि मनुष्य सीधे मूत्र त्याग पृथ्वी पर न करे, घास से युक्त भूमि पर करे। आज जरूर यह मजाक लगेगा लेकिन यह सब हमारी विराट संस्कृति का अंग रहा है। श्रीगणेश जी की पूजा बगैर दूब घास के संभव नहीं। 

महाराणा को तो घास की रोटी भी बच्चों को खिलानी पड़ी है लेकिन अपने मूल्यों के साथ समझौता नहीं किया। इसीलिए कवि को कहना पड़ा - "अरे घास की रोटी ही जद बन विलावड़ो ले भाग्यो।" घास को लेकर गधे और बाघ का किस्सा भी रोचक है। गधे ने कहा धरती पर उगने वाली घास का रंग नीला है, बाघ ने कहा हरा है, विवाद बढ़ गया तब जंगल के राजा के पास विवाद निपटान के लिए पहुंचा, शेर ने दोनों का पक्ष सुना और बाघ को सजा दे दी। सभी आश्चर्य चकित कि यह कैसा न्याय? जब पूरा जंगल जानता है घास हरी है तो फिर राजा की मति मारी गई है क्या? शेर से पूछा यह कैसा न्याय है? शेर ने कहा घास के रंग के लिए सजा नही दी गई, सजा तो बाघ को इस मूर्ख जीव से बतंगड़ करने के लिए दी गई है। 

घास हमारे ही साहित्य में है ऐसा नहीं है, पूरे विश्व साहित्य में घास का वर्णन मिलेगा। यहां चीन की एक लोककथा को उद्धृत करना चाहूंगा - चीन में यांगत्सी नदी के किनारे तीन राज्य थे वेई, वू और शू। वेई बड़ा था और साम्राज्य विस्तार का लोभी भी, चीन का सच्चा प्रतिनिधित्व करता था वेई। वू और शू की दोस्ती थी लेकिन कमजोर थे। एक दिन अचानक वू के राजा को सूचना मिली कि वेई की सेना ने वू को घेरने के लिए सेना भेज दी। वू की तैयारी नही थी, युद्ध में दस दिन बाकी थे, युद्ध सामग्री नही थी, तैयारी में समय ज्यादा चाहिए था। संयोग से शू का राजा वू के राज्य में आया हुआ था। वू राजा ने समस्या बताई तब शू के राजा ने कहा निश्चिंत रहो एक लाख तीरों की व्यवस्था मैं कर दूंगा। वू और घबरा गया कि शू राज्य से तीर आने में तो और ज्यादा समय लग जाएगा। शू ने कहा चिंता नको! आखिरी दिन यांगत्सी के तट पर वेई की सेना ने मोर्चा लगा दिया, तीर आए नही। शाम हो गई, अगली सुबह युद्ध होगा और वू की पराजय निश्चित है। शू के राजा ने अमावस की उस अँधेरी रात को वू के राजा को बुलवा कर कहा बीस नावों पर घास के पुतले रख दो और बेड़ा बनाकर रणभेरी के लिए डुग्गियां रख कर मुझे दो। शू का राजा उस बेड़े को लेकर यांगत्सी के पार दुश्मन के शिविर के पास ले जाकर खड़ा हो गया, घनी कोहरे वाली रात थी, उसने जोर से रणभेरी बजा दी, वेई की सेना अचानक शत्रु के सिर पर आ खड़े होने से घबरा गई। चूंकि सेना नदी में थी इसलिए शस्त्र युद्ध संभव नहीं था, इसलिये धनुष बाण से ही वू की सेना पर अँधेरे में तीर चलाना प्रारंभ किया। घास ने लगभग एक लाख तीर अपने में एकत्रित कर लिए और बेड़ा लेकर शू का राजा वू के पास पहुंच गया। घास ने एक लाख तीर वू को देते हुए वेई को तीर विहीन कर दिया था। घास के बने काकभगोड़े भी खेतों की रखवाली करते ही है। 

किसान जितना घास से डरता है उतना ही उसे प्यार भी करता है, जहां घास नही उगती ऐसी ऊसर जगह को किसान छोड़ जाते हैं। घास ही तो धरती की उर्वरता का मानक है।

(नोट :- लेख प्रकाशनाधीन है इसलिए इसकी चोरी का दुस्साहस अपनी रिस्क पर करें। शेयर करने के लिए स्वागत है।)