पोखर का जल
शीतल, समतल,
उर्मियाँ निःशेष/
सामने वनराजि -
जिसे पोखर सींचता है/
खींचता है चित्र
अपने तरल दर्पण पर
और द्विगुणित कर देता है
हरीतिमा को /
मन के भाव शब्दों में ढलकर जब काव्य रूप में परिणित होकर लेखन की भूमि पर बोये जाते है, तो अंकुरित हरितिमा सबको मुकुलित करती है! स्वागत है आपका इस काव्य भूमि पर.....।