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Wednesday 28 November 2012

माहौर नर-संहार का विषन्य ( 17 अप्रेल )


सम्वेदना मर रही है
सम्वेदना अमर है,
मर इसलिये रही है  -कि
मरना उसकी नियति है/
सतत् मर रही है
इसलिये अमर है/
                  कल हीं तो
                  मरी थीं दबकर कुचलकर
                  या कहीं हुई थीं-
                  गोली की शिकार/
हर बार
मरकर पुनः जी उठती थीं
कदाचित ...
जीना भी उसकी नियति है.
किन्तु आज
वह फिर मरी है
अपने ही घर में विस्थापित होकर
यही है-
           अखबार की ख़ास खबर
               इसलिये मरी है/
               हमारे भीतर
कि-
हर सुबह अखबार पढ़ना
उस पर बहस करना
फिर बहस कर भूल जाना
यही आदमीयत की
                            इति श्री है/
इसीलिये घुट-घुट कर
जीती है/
                  और मरती भी है इसीलिये
कि- अब ये सब
आम बात है/
स्थिति तनाव पूर्ण नियंत्रण में,
यही हालत है/
कुछ भी करने पर दंड
यही व्यवस्था की बिसात है/
आज मरना
                सम्वेदना का
और कल फिर मरना उसकी जिजीविषा है,
सबमें
मरकर
पुनः जीती है/
              यही उसकी विजीगिषा  है/
इस तरह
आज जब
सब जगह्
मरी है तो
उसका उठावना,
कल
कब /कहाँ होगा
पता नहीं।।।।-------गजेन्द्र पाटीदार 

Monday 26 November 2012

विडंबना


मैंने लिखा/
             मचा दी क्रांति
विचारों की,
गाड़े कीर्ति के झन्डे/
लोग उठ खडे हुए
            विप्लव के स्वर में
लेकर हाथों में झन्डे/
मैंने लिखी थीं भूख,
            लिखी थीं नग्नता,
            जिसने दी रोटी, दिए कपड़े/
जब मैंने ख़ुद को लिखा---
वह
      अब मै नहीं रहा/
अब मै पाता हूँ,
अपने आप को
उन भूखे, नंगो से जुदा
और फिर अब मै
कब से कोशिश कर रहा हूँ
                          लिखने की
मकान/
कि मुझे छत भी मिल जाएँ/
किन्तु कइयों के छप्पर
                            छिन जाने का डर है/-------गजेन्द्र पाटीदार



Sunday 25 November 2012

मंथन

शब्द तुम,
                अर्थहीन भटकते
पृथ्वि पर
आक्रांत कर रहे हो,
मानव को
              मानस को
दानव बहरा है
क्यो जगाते हो उसे?
जब मानव की सम्वेदना,
मर चुकी,
तब क्यो बकवाद की चिता
को लगाते हो?
        शब्द तुम शांत हो जाओ
कि क्रांति तुम्हारे साथ
प्रेयसी नहीं लगती
       तुम्हारा ताण्डव का आवाहन
                                        थोथा है/
क्योकि शंकर
समाधिस्थ नहीं
संहार की थकावट में
                                श्रांत
                                        सोता है/
शब्द तुम
शक्तियों को
              चेतना की त्वरा दो,
अभिधा से, लक्षणा से,
 व्यंजना से,
                प्रखरतर जाग्रत करो,
तुम्हारे मंथन से
हलाहल निकला है,
तो अमृत की प्रतीक्षा
का धीरज बाँधों/
                  पर सावधान!!
                   कोई राहु अब छले ना/ -------------गजेन्द्र पाटीदार 

अनुमान

मैंने समुद्र देखा नहीं कभी,
मैं एक घोंघा,
एक मछली,
एक मुठ्ठी रेत,
और एक चुल्लू पानी
देखकर।
उसका अनुमान करता हूँ।
और भूल जाता हूँ
खारे पान को।
जो समंदर को
इन सबसे अलग बनाते है।
पर मै अब समझने लगा हूँ--
कि वह खारेपन के बावजूद-
कोई बड़ी चीज है।
और जिसे खारे पानी से
भरी आँखें भी-
नहीं देख सकती।  -------गजेन्द्र पाटीदार 

Monday 5 November 2012

गुमशुदा


गुमशुदा
अपने जीवन से
अपरिचित उस आदमी ने
आज देखा इश्तहार
अपने गुम होने का
ठिठक गया वह
देखकर अपनी
उन इश्तहारों में गुमशुदगी
पर आज उसे कितना
सुकून मिला?
बस भगवान जानता है।
जो अनाम जिंदगी में नहीं मिला
उसे वह इन इश्तहारों में पाकर
वह खुश है
खुश है खुद के
खोने का
कितना उल्लास आज
उसे मिल रहा
जो जीकर नहीं पाया
वह खोकर पाया
इन इश्तहारों में
'कि कोई उसे भी ढूँढता तो है'
-कितना है गुमशुदगी का सुकून?
बिसराया वर्तमान जानता है।
कोई और
समझे न समझे!!