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Tuesday 16 August 2016

कितने तिरंगे फहरना अभी बाकी है?

कितने तिरंगे फहरने अभी बाकी है!
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                                               /गजेन्द्र पाटीदार

वह चाहती थी
आज अपनी सहपाठियों के साथ
प्रभातफेरी में जाना
उठकर नहा कर तैयार हो चुकी थी
कि बप्पा का हुकम हुआ
'जा बकरियां चराने ले जा,
आज छुट्टी है
मां दिहाड़ी पर जा दो पैसे कमा लेगी।'
शायद फेरी में न जाने वाली
कितनी बिटिया आज बकरियां चरा रही है!
अपनी बिटिया को बकरी न चराने देेने की चाह लेकर
भी सत्तरवें स्वतंत्रता दिवस पर
बकरियां चरा रही है।
कितने तिरंगे फहरने बाकी हैं अभी?

Sunday 7 August 2016

चेतना पर त्रासदी

मैं रघु राय के चित्र का वही बच्चा हूं!
भोपाल के भयावह कब्रिस्तान का साक्षी,
जमीन के नीचे आज भी
चेतन हूँ!
मेरी कब्र पर खड़ी हो गई है,
अट्टालिकाएँ
शायद आपकी चेतना मर गई है?

समय ने आप सब की
उम्र बढ़ा दी है!
इसीलिए आ चुकी है झुर्रियां,
चेतना के चेहरों पर!
चमड़ी में शल्क उभर आए हैं
पेड़ों के तनों की तरह,
मैं ठहरी हुई आयु का वही बच्चा हूँ,
तुम्हारी स्मृतियों में।

जब तक जिंदा है तुम्हारी स्मृतियां!
स्मृतियों की उम्र भी बढ़ रही है तुम्हारी तरह
उस पर भी खड़ी हो रही है,
अट्टालिकाएं मेरी कब्र की तरह!!
                                            /गजेन्द्र पाटीदार

Monday 25 July 2016

भ्रम

तालाब के पास
किसी उभरे हुए पत्थर पर,
पंख फैलाए जल कुक्कड़ को देख
नहीं समझना चाहिए
कि वह सरेंडर की मुद्रा में
बैठी,
मछलियों के प्रति अपना प्रायश्चित
प्रकट कर रही है।
समझ लीजिए
वह सुखा रही है पंख
अगली घातक डुबकी के लिए।

Saturday 16 July 2016

सूरज की प्रतीक्षा

घुमड़ते घने काले बादलों
और बरसती
फुहार के गीत
उमगती धरती और बिजली की कौ़ध
पर गीत लिख सकता हूं।
लिख सकता हूं
लरजती भीगती तरूणी के देहबंद
पर
फिर याद आता है
बादलों के गर्जन और बिजली की चकाचौंध से
भयग्रस्त झोपड़ी के दीमक लगे
जर्जर खम्भों को कौन लिखेगा?
उड़ चुकी छपरैल से टपकता आसमान
कौन लिखेगा?
कौन लिखेगा डर से
जब्त रात के बाद
उगते सूरज का स्वागत
मुझे सूरज के ताप से पिघले
काले स्याह चेहरों का
दर्द भी लिखना है,
और लिखना है सूरज की प्रतीक्षा भी।
4/7/16

प्रवास


हमारा चालू रहा प्रवास,
गिना जिसे विश्राम, वह रहा मात्र आभास।

रण के जैसे इस मन में,
तुमको हरियल वन सा साथ लिया।
तुम्ही पिलाओगे यह सोचा तो,
जानबूझकर मृगजल पीया।
हवा कान में कहकर निकली-' फूल में कहां है बास? '
हमारा चालू रहा प्रवास।

जिन पदचिन्हों में खोजे,
पथ की दूरी के हमने मानी।
पर वापस लौट आने वालों की
यही निशानी, आखिर जानी।
अब थककर घुटने टेक रहा विश्वास।
हमारा चालू रहा प्रवास।

मूल रचना.....
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અમારો ચાલુ રહ્યો પ્રવાસ!
ગણ્યા વિસામા જેને એ તો હતો માત્ર આભાસ!

રણ જેવા આ મનમાં
લીલા વન શાં તમને સાથે લીધા,
તમે પાઓ છો તેથી તો
મેં છતે જાણતે મૃગજળ પીધાં.
હવા કાનમાં કહી ગઈ કે ફૂલમાં ક્યાં છે વાસ?
અમારો ચાલુ રહ્યો પ્રવાસ.

 

જે પગલાંમાં કેડી દેખી
દૂર દૂરની મજલ પલાણી;
પાછા વળનારાની પણ છે
એ જ નિશાની, આખર જાણી!
હવે થાકના ટેકે ડગલાં ભરી રહ્યો વિશ્વાસ!
અમારો ચાલુ રહ્યો પ્રવાસ!

 

રઘુવીર ચૌધરી

पौधा रोपें

हमने चाहा
सुख
चाहा खुश रहना
चाहा पैसा, पत्नी, बच्चे,
सब चाहा जिससे
खुद आनंद और प्रमोद से जीवन गुजरे।
चाहते रहे जीवन भर
स्वच्छ पानी, स्वच्छ हवा, पुष्ट भोजन
कभी पानी गंदा न करने की कोशिश
नहीं की,
कभी हवा को गंदा और भारी होते देख
दुखी नही हुए,
जबकि सुखी होने की पहली शर्त यही थी।
हमने दूषित किया धरती को, पानी को,
हवा को, आकाश को, सबको
पाप के भागी है हम
चलो प्रायश्चित करलें।
आओ पौधा रोपें
सारी पापमुक्ति का यज्ञ एक ही है,
चलो मिलकर धरती को
हरियाली की चूनर ओढ़ा दें।

Sunday 10 July 2016

गगन पूरा सिर पर

અમે રાખમાંથીયે બેઠા થવાના,
જલાવો તમે તોયે જીવી જવાના.

हम राख भीतर से फिर फिर उठेंगे
जलाओगे तब भी फिर जी उठेंगे।

ભલે જળ ન સીંચો તમે તે છતાંયે,
અમે ભીંત ફાડીને ઊગી જવાના.

भले जल न सींचोगे, फिर देख लेना,
हम दीवारों के भीतर उग कर उठेंगे।

ધખો તમતમારે ભલે સૂર્ય માફક,
સમંદર ભર્યો છે, ન ખૂટી જવાના.

जलो तुम सूरज की तरह ताप लेकर
समंदर भरा है तो खाली न होंगे।

ચલો હાથ સોંપો, ડરો ન લગીરે,
તરી પણ જવાના ને તારી જવાના.

चलो हाथ दो, साथ आओ डरो ना,
तरेंगे भी हम और तुझे तार देंगे।

અમે જાળ માફક ગગન આખું ઝાલ્યું,
અમે પંખી એકે ન ચૂકી જવાના !

गगन पूरा सिर पर लेकर चले हैं,
हम पंखी कोई चूक कर ना चलेंगे।

(गुजराती कवि श्री हर्ष ब्रह्मभट्ट)

तुम्हारे हैं हम तो.

तुम्हारी इन आँखों की हरकत नहीं ना?
फिर से नई कोई आफत नहीं ना??

मुझे चीरती है ये पूरा का पूरा,
पलक बीच इसमें तो करवत नहीं ना?

हम दोनों के बीच बहती नदी है,
इस पानी के नीचे तो पर्वत नहीं ना?

तुम्हारे, तुम्हारे, तुम्हारे हैं हम तो,
इसमें प्रतिश्रुति की जरूरत नहीं ना??

(रचना : यामिनी गौरांग व्यास ઝાકળ યામિની સે સાભાર, अनुवाद :गजेन्द्र पाटीदार)

તમારી એ આંખોની હરકત નથી ને ?
ફરી આ નવી કોઈ આફત નથી ને ?

વહેરે છે અમને તો આખા ને આખા,
એ પાંપણની વચમાં જ કરવત નથી ને ?

વહે છે નદી આપણી બેઉ વચ્ચે,
એ પાણીની નીચે જ પર્વત નથી ને ?

તમારા તમારા તમારા અમે તો,
કહ્યું તો ખરું તોયે ધરપત નથી ને ?

-યામિની ગૌરાંગ વ્યાસ