Search This Blog

Thursday 20 April 2017

सूरज पर कब्जा

लोहार यूं ही चिल्लाता रहा
लोहे की तपन।
लोहे को ऐंठ देने की कला पर
ऐंठता रहा!
घोड़ा
जुगाली करते हुए
लगाम को उगालता रहा।
भले उसकी हर कोशिश बेमानी थी।
मैं उलझता रहा लगाम की जुगाली पर।

खुरों में नाल ठुकने के
दर्द पर मेरा ध्यान ही नहीं गया!
मुझे तो बस उसे
विजेता दौड़ के लिए
हांकना था।
जो खुरों और नाल के बीच
उलझी हुई थी!

खुरों में ठुँकती कीलों की नोक
और
लोहारिन के खून से रिसते लोहे की,
कमी से चुभती कीलों का
दर्द वैसा ही था!

इसके बावजूद ऐंठ जारी है,
भट्टी और धौकनी के बल पर
सूरज को कब्जाने की
कोशिश में
नए तर्क गढ़े जा रहे हैं
कि हमारी पीढ़ियां
पूजती आई है तब से जब से
सूरज ने चमकना शुरू किया है!