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Thursday 2 April 2015

अर्जुन का पेड़ (कविता) गजेन्द्र पाटीदार

मेरे खेत की मेढ़ से
भीष्म प्रतिज्ञा की तरह बँधा
अर्जुन का पेड़
अब भी बचा है,
कितने हीं संग्रामों का गवाह,
जो लड़े गये
उस जमीन के लिये
जिस पर वह खुद खड़ा
निहार रहा है
अपलक, निर्निमेष न जाने कौन सा भूत?
कौन सा भवितव्य?
जिसकी शाख पर झोली बांध
मांए कितनी पीढ़ियों की
करती रही काम
बूढ़े पेड़ पर बसते अज्ञात भूत
से भी निडर
करके भरोसा।
हमारी उन्हीं कितनी हीं पीढ़ियों ने
बड़े होकर सुविधा से
सुविधा के लिये चलाई कुल्हाड़ियाँ
उसकी शाखों पर।
मेढ़ के लिये हुए कितने हीं युद्धों
कितने हीं छलों और कितने हीं झूटों
के सच का एकमात्र शख्स
जो मेरे थक कर
घर लौट आने के बाद भी
निरंतर जूझ रहा है
मेरे वंशजों के लिये प्राणवायु के
सतत निर्माण हित
जब तक जी रहा है सतत कर्मशील।
पृथ्वी के प्रदूषण के विरूद्ध
सतत ब्रह्मास्त्र उठाए
खेत के कुरूक्षेत्र में खड़ा
वह अर्जुन का पेड़
मेरे खेत की मेढ़ से बँधा।
                          30-03-15 चित्र viewpointjharkhand.in से साभार