अपने समय के उस
आलमपनाह की मज़ार के
मोटे, भारी-भरकम पत्थरों की
दरारों में उगने लगी है
घास।
ज्वालामुखी सी आग
दबाए वक्ष में
बैठे किसी पहाड़ की कोख में
जम जाती है पहले पहल
ठंडी बर्फ।
इतिहास आलमगीर
अपनी आँख से
सिर्फ खुद को देखता है,
कितनी लड़ाइयाँ,
संधियाँ कितनी की है उसने।
मैं आँख से नहीं देखता खुद को
न लड़ाइयों, न संधियों को।
देखता हूँ सिर्फ
चट्टानी दरारों के बीच
उँगी घास को चरते
गदहों को
और घास के गिरे बीजों से
अपने बच्चों को पालती, दौड़ना सिखाती
नन्ही गिलहरियों को।
मजार के
सूनेपन को अपनी छाया से
ढाँकते पेड़ पर
चिड़ियों की चहचहाहट
जहाँपनाह की नींद को उचाट देती है! 26-03-2015©
आलमपनाह की मज़ार के
मोटे, भारी-भरकम पत्थरों की
दरारों में उगने लगी है
घास।
ज्वालामुखी सी आग
दबाए वक्ष में
बैठे किसी पहाड़ की कोख में
जम जाती है पहले पहल
ठंडी बर्फ।
इतिहास आलमगीर
अपनी आँख से
सिर्फ खुद को देखता है,
कितनी लड़ाइयाँ,
संधियाँ कितनी की है उसने।
मैं आँख से नहीं देखता खुद को
न लड़ाइयों, न संधियों को।
देखता हूँ सिर्फ
चट्टानी दरारों के बीच
उँगी घास को चरते
गदहों को
और घास के गिरे बीजों से
अपने बच्चों को पालती, दौड़ना सिखाती
नन्ही गिलहरियों को।
मजार के
सूनेपन को अपनी छाया से
ढाँकते पेड़ पर
चिड़ियों की चहचहाहट
जहाँपनाह की नींद को उचाट देती है! 26-03-2015©