उस ऊँचे पहाड़ की सँकरी पगडंडी से
माथे पर
चीड़ की सूखी
लकड़ियों का बोझ लादे
वह लड़की
उतर रही है!
सदियों से संभवत:!!
न जाने कब वह चूल्हा जलाएगी?
न जाने कब वह रोटी पकाएगी?
बोझ ढोनें का सदियों का सफर कब बिरमाएगा?
क्या नियति ने उस लड़की का भाग्य
नियत कर दिया है?
कि पहाड़ की सारी चेतना को उसके पदचाप में
भर दिया है!
उन पहाड़ों की गहरी उपत्यकाएँ
शायद सूनी हो जाए
उस पहाड़ी चीड़ की लकड़ी बिनती
लड़की के बिना।
28-03-2015©