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Friday 3 April 2015

लौहत्व

लोहे को पिघलाकर कूटती
गड़लिया लोहारिन
अनवरत अपने हथौड़े को अविराम
चलाते हुए
हाँफने लगती है।
सारा लोहा पिघलाकर उसने सौंप दिया है धरती को।
नारी अपने रक्त से निचोड़कर
दे देती है सबको
सब कुछ
अपना सत
अपना स्वत्व ।
घोड़े ने लोहे का स्वाद चखा है,
पर संसार में जितना भी लोहा है-
सब नारी के रक्त से है लथपथ
धरती के इतिहास में लोहे की खोज किसने की मुझे नहीं पता?
पर इतना निश्चय है कि लोहे को नारी ने हीं आकार दिया है।
लोहे को नारी ने संस्कार दिया है
खुद अपने अंदर लोहे की
कमी से जूझते हुए,
मानव समाज की नींव को फौलाद से भर दिया है।
नारी के रक्त से छीना
लोहा लौटाया हीं नहीं आदमी ने।
उसी लूटे हुए लोहे के दम पर
आदमी मजबूत बनता है
लुटी हुई नारी से पाकर सब कुछ!!

Thursday 2 April 2015

कविता की कलम (कविता) गजेन्द्र पाटीदार

मेरी कविता मेरी तरह हीं है,
जिंदा!
जिस तरह तुम मुझे काटना चाहते हो
काटो मुझे
या मेरी कविता को,
हर बार,
हर हाल में
वह होगी जीवित
जीवन की सभी संभावनाओं के साथ,
कटी हुई कविता में भी
शाख की तरह
अनंत संभावनाएं भरी होंगी।
— कि जाकर थोड़ी सी मिट्टी,
थोड़ी सी धूप
और थोड़ा सा पानी दे दो।
नई कोंपले,
नये पत्ते, नये बूटे,
फिर नई ऊर्जा,
उष्मा के साथ नया बिरवाँ
पल्लवित पुष्पित होंगा।

तुम्हारे हत्य़ारे हाथों से भी
महकूंगा मैं;
मेरी कटी हुई कविताएँ।
चाहे काटने के लिये
तुम आओ तो
मेरे पास
मेरी
या मेरी कविताओं की छाया में।  2-4-15©

इतिहास की नजर (कविता) गजेन्द्र पाटीदार

अपने समय के उस
आलमपनाह की मज़ार के
मोटे, भारी-भरकम पत्थरों की
दरारों में उगने लगी है
घास।

ज्वालामुखी सी आग
दबाए वक्ष में
बैठे किसी पहाड़ की कोख में
जम जाती है पहले पहल
ठंडी बर्फ।
इतिहास आलमगीर
अपनी आँख से
सिर्फ खुद को देखता है,
कितनी लड़ाइयाँ,
संधियाँ कितनी की है उसने।

मैं आँख से नहीं देखता खुद को
न लड़ाइयों, न संधियों को।
देखता हूँ सिर्फ
चट्टानी दरारों के बीच
उँगी घास को चरते
गदहों को
और घास के गिरे बीजों से
अपने बच्चों को पालती, दौड़ना सिखाती
नन्ही गिलहरियों को।
मजार के
सूनेपन को अपनी छाया से
ढाँकते पेड़ पर
चिड़ियों की चहचहाहट
जहाँपनाह की नींद को उचाट देती है! 26-03-2015©

लड़की के बिना (कविता) गजेन्द्र पाटीदार

उस ऊँचे पहाड़ की सँकरी पगडंडी से
माथे पर 
चीड़  की सूखी
लकड़ियों का बोझ लादे 
वह लड़की
उतर रही है!
सदियों से संभवत:!!
न जाने कब वह चूल्हा जलाएगी?
न जाने कब वह रोटी पकाएगी?
बोझ ढोनें का सदियों का सफर कब बिरमाएगा?
क्या नियति ने उस लड़की का भाग्य
नियत कर दिया है?
कि पहाड़ की सारी चेतना को उसके पदचाप में
भर दिया है!
उन पहाड़ों की गहरी उपत्यकाएँ
शायद सूनी हो जाए
उस पहाड़ी चीड़ की लकड़ी बिनती
लड़की के बिना। 
                    28-03-2015©

अर्जुन का पेड़ (कविता) गजेन्द्र पाटीदार

मेरे खेत की मेढ़ से
भीष्म प्रतिज्ञा की तरह बँधा
अर्जुन का पेड़
अब भी बचा है,
कितने हीं संग्रामों का गवाह,
जो लड़े गये
उस जमीन के लिये
जिस पर वह खुद खड़ा
निहार रहा है
अपलक, निर्निमेष न जाने कौन सा भूत?
कौन सा भवितव्य?
जिसकी शाख पर झोली बांध
मांए कितनी पीढ़ियों की
करती रही काम
बूढ़े पेड़ पर बसते अज्ञात भूत
से भी निडर
करके भरोसा।
हमारी उन्हीं कितनी हीं पीढ़ियों ने
बड़े होकर सुविधा से
सुविधा के लिये चलाई कुल्हाड़ियाँ
उसकी शाखों पर।
मेढ़ के लिये हुए कितने हीं युद्धों
कितने हीं छलों और कितने हीं झूटों
के सच का एकमात्र शख्स
जो मेरे थक कर
घर लौट आने के बाद भी
निरंतर जूझ रहा है
मेरे वंशजों के लिये प्राणवायु के
सतत निर्माण हित
जब तक जी रहा है सतत कर्मशील।
पृथ्वी के प्रदूषण के विरूद्ध
सतत ब्रह्मास्त्र उठाए
खेत के कुरूक्षेत्र में खड़ा
वह अर्जुन का पेड़
मेरे खेत की मेढ़ से बँधा।
                          30-03-15 चित्र viewpointjharkhand.in से साभार