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Thursday 1 December 2011

बहती नदी—गजेंद्र पाटीदार


मुझ मेँ नदी बह़ती है
लगभग समूची
तट पर खड़े लोग
देख सकते है
मंथर, मदिर ,उर्मियाँ
सपाट समतल जल पर
पर गहरे मेँ
एक अंत:सलिला भी
बहती है निरंतर
वही उस नदी का उत्स है,
वही अंत: सलिला हीं
जिलाती है
मुझको सबमें
सबको मुझमेँ।
अनवरत बहकर यह नदी
मुझमेँ  मुझको
जिंदा रखती है ।
जो गहरे डूबकर
कुछ खोजते है ।
पा हीं जाते है,
समूची नदी
क्यों कहूँ मोती,
घोंघे,सीपियाँ, शंख,
मछली
ये भी तो नदी के हीं अवयव हैं।
मैं नदी को
भिन्न नहीँ देखता ।
अभिन्न है,
समूची नदी । ....14,08,2014