Search This Blog

Wednesday 7 August 2013

कोटेश्वर

कोटेश्वर
यहीं है मेरा दशाश्वमेध,
यहीं है मेरा मणिकर्णिका,
यहीं पर आना है मुझे,
किन्हीं काँधों पर चढ़कर
कोटेश्वर
नर्मदा का तट
प्रातः नित्य
मत्स्याखेट को जाते केवट।
नन्हे बच्चे
नर्मदा के,
तैरने की कलाबाजी के साथ
ढूँढते हैं सिक्के नर्मदा में,
चुम्बक बाँधकर रस्सियों में
फेंकते है जल में
खोजने सिक्के नर्मदा से/
तैरती तरणियाँ पार उतारती है,
इस तरह नर्मदा
पीढ़ियों को तारती है,
उन्हें भी जो
जल में आनाभि
उतरकर देते हैं अर्ध्य तरणी को।
और उन्हे भी
जो घाट पर
चीथड़े फैलाकर
अन्न का दान
माँगते याचक।
त्रिकाल मज्जन कर
मुमुक्षु वितरागी
अपनी जटा जल में डुबोकर
फटकारता है
तो नर्मदा
कितने हीं
इंद्रधनुष रचती है
अपने अंक में।
संध्या के सिंदुरी सूर्य के
अस्ताचल में छिपने के बाद
नर्मदा परिक्रमा के
परिव्राजक
नन्हीं घंटियाँ टिनटिनाते हुए
नन्हे दीपों से
'जय जगदानंदी'
गाकर उतारते हैं आरती
सभी दु:ख
सारे क्लेश
नर्मदा हीं टारती।
इस तरह जीवन के कईं परसर्ग
रचती है नर्मदा—
नर्मदा ने,
नर्मदा को,
नर्मदा में,
नर्मदा से,
नर्मदा पर/
जीवन के उपरांतस्वर्ग के भी कई उपसर्ग लिखती है
नर्मदा,
अपने इसी तीर्थ
कोटेश्वर में,
कुमार स्कन्द की तपस्थली
कईं यज्ञों की पुण्यस्थली,
संस्कृति की स्रोतस्विनी की कोख से
जहाँ मानवता फूली और फली।
उरी और बाघनी नदियाँ
करती है संगम
करती है अभिषेक
नर्मदा का,
अपने शंख, सीपियों,और कंकड़ रेत से।
स्वीकारती है सर्व योगक्षेम
नर्मदा
जनम का, जीवन का, मरण का
करती है वरण
उनका भी
जो रण जीत जाते हैं,
और उनका भी
जो रण हार
खुद को न्यौछावर कर देते है।
मैं भी शब्दों को न्यौछावर करता हूँ
अभी
खुद के न्यौछावर होनें तक।
सर्वदा हर्म्यदा पुण्या सर्वत्र नर्मदा को।।
-—-—-—-—-—गजेंद्र पाटीदार 
23.07.2014

Friday 21 June 2013

आतंकवाद

न जाने मरने के पहले के,
उस क्षण में, 
उसने क्या सोचा होगा।
शायद कोई दबी हुई इच्छा,
कोई प्यारा स्वप्न, 
उसकी आँखों के सामने तैर गया हो।
या शायद उसने सोचा हो अपने,
खेत खलिहानों के बारे में।
या शायद सोचा हो उसने,
अपने गाँव में कूकती कोयल को।
या शायद याद आई हो उसे,
अपने गाँव की स्वच्छ सुगन्धित शीतल वायु।
न जाने मरने से पहले के
उस क्षण में,
उसने क्या सोचा होगा?
शायद उसने सोचा हो अपने,
घर-परिवार के बारे में।
या शायद उसने सोचा हो अपने,
सबसे छोटे बच्चे का मासूम चेहरा।
या उसे याद आई होई शायद,
उसकी प्रतीक्षा करती मान की आँखें।
न जाने मरने से पहले के
उस क्षण में,
उसने क्या सोचा होगा?
न जाने मरने से पहले के,
वह धर्म, जाती जैसे शब्दों पर थूक सका,
या नहीं ।
न जाने वह द्वेष,इर्ष्य,स्वार्थ आदि शब्दों से,
नफ़रत कर सका, या नहीं।
न जाने मरने से पहले के
उस क्षण में,
उसने क्या सोचा होगा?
......साजिद आज़मी ex prof. Botny Govt.college Kukshi.

..............मै अपने मित्र साजिद आजमी (इलाहबाद) की कविता
(आतंकवाद) जो उन्होंने मुझे १९९४ में दी थी, शेयर कर रहा हूँ. और उन्हें ढूँढ़ रहा हूँ |

Sunday 10 March 2013

पोखर का जल


पोखर का जल
शीतल, समतल,
उर्मियाँ निःशेष/
सामने वनराजि -
जिसे पोखर सींचता है/
खींचता है चित्र
अपने तरल दर्पण पर
और द्विगुणित कर देता है
हरीतिमा को /

Wednesday 6 March 2013

ताल, तीर, बक और मछली

ताल के तीर पर
भ्रमित बक
समतल जल पर
निरख  कर प्रतिबिम्ब
अठखेलियाँ करता है,
खुद से / कभी
कभी
जल के भीतर
अठखेलियाँ करती मछली
को देखकर
फुदक कर मारता है चोंच
और खेलता है
मछली से,
इस तरह
ताल,
तीर,
बक
और मछली
माया का संसार रचते है/
भूख और भ्रम
सब जगह माया का संसार
रचते है…