कोटेश्वर
यहीं है मेरा दशाश्वमेध,
यहीं है मेरा मणिकर्णिका,
यहीं पर आना है मुझे,
किन्हीं काँधों पर चढ़कर
कोटेश्वर
नर्मदा का तट
प्रातः नित्य
मत्स्याखेट को जाते केवट।
नन्हे बच्चे
नर्मदा के,
तैरने की कलाबाजी के साथ
ढूँढते हैं सिक्के नर्मदा में,
चुम्बक बाँधकर रस्सियों में
फेंकते है जल में
खोजने सिक्के नर्मदा से/
तैरती तरणियाँ पार उतारती है,
इस तरह नर्मदा
पीढ़ियों को तारती है,
उन्हें भी जो
जल में आनाभि
उतरकर देते हैं अर्ध्य तरणी को।
और उन्हे भी
जो घाट पर
चीथड़े फैलाकर
अन्न का दान
माँगते याचक।
त्रिकाल मज्जन कर
मुमुक्षु वितरागी
अपनी जटा जल में डुबोकर
फटकारता है
तो नर्मदा
कितने हीं
इंद्रधनुष रचती है
अपने अंक में।
संध्या के सिंदुरी सूर्य के
अस्ताचल में छिपने के बाद
नर्मदा परिक्रमा के
परिव्राजक
नन्हीं घंटियाँ टिनटिनाते हुए
नन्हे दीपों से
'जय जगदानंदी'
गाकर उतारते हैं आरती
सभी दु:ख
सारे क्लेश
नर्मदा हीं टारती।
इस तरह जीवन के कईं परसर्ग
रचती है नर्मदा—
नर्मदा ने,
नर्मदा को,
नर्मदा में,
नर्मदा से,
नर्मदा पर/
जीवन के उपरांतस्वर्ग के भी कई उपसर्ग लिखती है
नर्मदा,
अपने इसी तीर्थ
कोटेश्वर में,
कुमार स्कन्द की तपस्थली
कईं यज्ञों की पुण्यस्थली,
संस्कृति की स्रोतस्विनी की कोख से
जहाँ मानवता फूली और फली।
उरी और बाघनी नदियाँ
करती है संगम
करती है अभिषेक
नर्मदा का,
अपने शंख, सीपियों,और कंकड़ रेत से।
स्वीकारती है सर्व योगक्षेम
नर्मदा
जनम का, जीवन का, मरण का
करती है वरण
उनका भी
जो रण जीत जाते हैं,
और उनका भी
जो रण हार
खुद को न्यौछावर कर देते है।
मैं भी शब्दों को न्यौछावर करता हूँ
अभी
खुद के न्यौछावर होनें तक।
सर्वदा हर्म्यदा पुण्या सर्वत्र नर्मदा को।।
-—-—-—-—-—गजेंद्र पाटीदार
23.07.2014
मन के भाव शब्दों में ढलकर जब काव्य रूप में परिणित होकर लेखन की भूमि पर बोये जाते है, तो अंकुरित हरितिमा सबको मुकुलित करती है! स्वागत है आपका इस काव्य भूमि पर.....।