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Sunday 25 November 2012

मंथन

शब्द तुम,
                अर्थहीन भटकते
पृथ्वि पर
आक्रांत कर रहे हो,
मानव को
              मानस को
दानव बहरा है
क्यो जगाते हो उसे?
जब मानव की सम्वेदना,
मर चुकी,
तब क्यो बकवाद की चिता
को लगाते हो?
        शब्द तुम शांत हो जाओ
कि क्रांति तुम्हारे साथ
प्रेयसी नहीं लगती
       तुम्हारा ताण्डव का आवाहन
                                        थोथा है/
क्योकि शंकर
समाधिस्थ नहीं
संहार की थकावट में
                                श्रांत
                                        सोता है/
शब्द तुम
शक्तियों को
              चेतना की त्वरा दो,
अभिधा से, लक्षणा से,
 व्यंजना से,
                प्रखरतर जाग्रत करो,
तुम्हारे मंथन से
हलाहल निकला है,
तो अमृत की प्रतीक्षा
का धीरज बाँधों/
                  पर सावधान!!
                   कोई राहु अब छले ना/ -------------गजेन्द्र पाटीदार 

अनुमान

मैंने समुद्र देखा नहीं कभी,
मैं एक घोंघा,
एक मछली,
एक मुठ्ठी रेत,
और एक चुल्लू पानी
देखकर।
उसका अनुमान करता हूँ।
और भूल जाता हूँ
खारे पान को।
जो समंदर को
इन सबसे अलग बनाते है।
पर मै अब समझने लगा हूँ--
कि वह खारेपन के बावजूद-
कोई बड़ी चीज है।
और जिसे खारे पानी से
भरी आँखें भी-
नहीं देख सकती।  -------गजेन्द्र पाटीदार