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Saturday 13 September 2014

ईश्वर —गजेंद्र पाटीदार

मेरे चीथड़ोंसे
चूते पसीने की
गंध तुम सह नहीँ पाओगे
कीचड़ से सने
पैर
कईं  सफेदियों पर ग्रहण लगा देंगे। इसलिए तुम
मेरे पास मत आओ
मुझे रहने दो
असुविधा के इस रौरव मेँ
रहने दो कुभीपाक में अभी
क्योंकि
तुमने अंबेडकर को भी
कोट ओर पतलून पहनाकर
मेरी जात से छीन लिया है/
अब मैं नहीँ आना चाहता
तुम्हारे साथ
क्योंकि
मुझे पता है, तुम्हारे साथ जो गया/
वह बदजात हो जाता है/
राजधानियों की रंगीनियों मेँ डूबकर
वह केवल सपनों का सौदागर हो जाता है इसलिए मैं
सबको ठुकराता हूँ/
नकारता हूं सबको/
कि मेरी पीड़ा को भी तुम/
अपने विज्ञापन के अवसर के रुप मेँ लेकर/
बस मेरा मजाक उड़ाओगे/
मैं तपूंगा और/
इस नरक की आग मेँ/
अब न छला जाऊंगा तुम्हारे ईश्वर से भी/ क्योंकि जिसे
जिसे मैंने अपना कहा/
चालाक तुम लोगों ने/
उसे ईश्वर बनाकर पूज दिया/
बैठा दिया गर्भगृह मेँ कैद करके/
मंत्रों की आवृत्तियों के जाल में उलझा तुम्हारा ईश्वर भी/
मेरी हाय से बच न सकेगा/
मेरी सड़ांध भरी जिंदगी को जब तक तुम्हारा ईश्वर न सीकारेगा/
बच नहीँ सकता/
यह सब होगा/
अगली क्रांति की सुबह/
............29,08,2014

टिटहरी की चीख - गजेंद्र पाटीदार

टिटहरी
जेठ की भीषण
दुपहरी में

कंकड़ों, पत्थरों का
कोटर बनाकर
देती है अंडे

छुपा देती है उन्हे
उन्हीं कंकड़ों के बीच
अंडाखोरों से सुरक्षा के लिये/

टिटहरी भी धरती पर
दिखती कहाँ है प्रकृति की विशालता में?

उसके अंडों की ओर
उठते कदमों के विरूद्ध चीख का नाम
हीं तो है
टिटहरी /
        13-09-14

लोकतंत्र और बहसें

शाम के छ: बजने वाले है/
आज का ज्वलंत मुद्दा
"................."
टीवी पर पैनलिस्टों का होगा
घमासान
फिक्सिंग में सेट कुछ
अखबारी बिरादर भी
फिक्स हैं/
किस दल से कौन?
क्या बोलेगा?
पता है।
अलबत्ता पता होना चाहिये—
कौन किस दल में है?
टीवी के प्यालिया तूफानों से हम
अमूमन वाकिफ होते है
मगर फिर भी
हम बैठते हैं शाम के छ: बजे/
टीवी के आगे /
इस तरह रोजमर्रा से
जूझकर भी
हम तटस्थ रहते है, 
लोकतंत्र के
पक्के और सच्चे वोटर की तरह/
आखिर हम लोकतंत्र के
पहरेदार भी तो है/
           13-09-14