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Sunday 16 December 2012

कल्पना


कल्पना के स्खलित होते शिखरों की                    
नग श्रंखला 
बिम्ब]
   शिल्पी की कुण्ठित छेनियाँ] 
प्रतीक]
   प्राचीन प्राचीरों के ढूह] खंडहर 
किस सौन्दर्य शास्त्र को गढ़ेगी कविता]
                         प्रास और अनुप्रास के 
                         अनुबंध को कर अस्वीकार 
रूपकों के तोड़कर विग्रह 
छंद को स्वच्छंदता की सान पर घिसकर 
व्याज और निर्व्याज 
    के सम्बन्ध को कर दर किनार 
              भावों की कविता चिड़ियाँ उड़ेगी। 


Wednesday 5 December 2012

पाटीदारी बोली: अनुशीलन

            Gajendra Patidar         पाटीदारी बोली के सम्बन्ध में कुछ बातें आज अपने ब्लॉग पर शेयर करना चाहता हूँ। मूलतः पश्चिम निमाड़ के बड़वानी -  धार  की  तहसीलों  के 72 ग्रामो के  साथ  खरगोन जिले के 54 ग्रामों के लेवा पाटीदारों के द्वारा जिस बोली का व्यवहार अपनी मातृभाषा के रूप में किया जाता है ; उसका उल्लेख किसी भी प्रकार से म.प्र. के लिंग्विस्टिक शासकीय/अशासकीय कार्यों में नहीं है. हम पाटीदारों के मुख्य रूप से कृषिजीवी होने एवं अपने अंचल की प्रभुजाति होने के बावजूद ख़ुद हमारा ध्यान इस और नहीं गया है कि अत्याधुनिकता के इस दौर में अपनी  दिन-प्रतिदिन घुट घुट कर मरने वाली इस पाटीदारी बोली के बारे में, इसके परिमार्जन के बारे में सोचे.
                        हमारी यह बोली वस्तुतः गुजराती की बोलियों (एवं उपबोलियों) में (1.Ahmedabadi, 2.Gamada,  3.Anawla, 4. Bhawnagari, 5. Bombay Gujarati, 6. Brathela, 7. Charottari, 8. "PATIDARI", 9. Eastern Bhroch Gujarati, 10. Gohilwadi, 11. Gramya, 12. Holadi, 13. Jhalawadi, 14. Kakari, 15. Kathiyawadi,16. Kharwa, 17. Nagari, 18. Parsi, 19. Patani, 20. Patnuli, 21. Saurashtra Standard, 22. Sorathi, 23. Standard Gujarati, 24. Surati, 25. Tarimuki(Ghisadi).26. Vadodari, से एक "पाटीदारी" है। हिन्दी के भाषा विज्ञानी डॉ.भोला नाथ तिवारी ने अपने ग्रन्थ "हिंदी भाषा " में गुजराती भाषा की सोलह बोलियों और दो उपबोलियो को ही मान्यता दी है।
                        लेकिन मेरा आलोच्य विषय "पाटीदारी बोली" है। मेरा मत है  जब पाटीदारों ने अपनी मूल भूमि छोड़ कर मध्य भारत की ओर निष्क्रमण किया और निमाड़ के इस अंचल में आकर बसे, अपने साथ अपनी विरासत के रूप में अपनी मातृभाषा को लेकर आए। जिसका आज तक हम अपने भाषिक व्यवहार में उपयोग करते है। निश्चित ही पाटीदारी बोली का प्रभाव निमाड़ी बोली पर पड़ा है , और तदनुरूप निमाड़ी बोली का प्रभाव पाटीदारी बोली पर भी उसी रूप में पड़ा है।हमारी  इस भाषा को जीवित रहना चाहिए। क्योकि आज के तथाकथित युग में अब सभी समझदार लोग अपने बच्चों के  साथ अपनी बोली में नही बल्कि अंग्रेजी या हिंदी में बतियाना पसंद करते  है।
                         हमारी इस पाटीदारी बोली में लोक परंपरा और लोक गायन के साथ लोक साहित्य के पर्याप्त रूप विद्यमान है। लिखित साहित्य भी भजन-भक्ति व विविध संस्कारों के अवसर पर गाये जाते है।यथा ---------           
     सकळ  सभा ना मन भाया, रुण झुण  नाच रे गणराया।
     दोंद बड़ी दंतासुर मोटा,  दोंद बड़ी दंतासुर मोटा;
     लम्बी सोंड रोऴाया। रुण झुण  नाच रे गणराया।।
     शिवशंकर ना  पुत्र कहाया , शिवशंकर ना  पुत्र कहाया ,
     गंगा गौरा मायाँ ; रुण झुण  नाच रे गणराया।।                                             
                           उक्त उदाहरण के माध्यम से केवल यह सिद्ध है कि पाटीदारी बोली में प्राचीन रचित साहित्य पर्याप्त एवं सम्मान जनक मात्रा में विद्यमान है( यदि शोधार्थियों की अपेक्षा होगी तो ब्लॉग के माध्यम से उन्हें भी अनावृत करने की कोशिश करूंगा)। जैसा कि मैंने 72 व 54 ग्राम-गोल की बात की थी, वास्तव में कृषि एवं अन्य व्यावसायिक कारणों से इन ग्रामों के अतिरिक्त ग्रामों में भी लेवा पाटीदार समाज के बन्धु स्थानीय प्रव्रजन के तहत रहने व मान्यता प्राप्त कर 72 की जगह 77 ग्राम हो चुके है एवम् 54 की जगह भी अधिक हो गए है। जैसा की ज्ञात है -विश्व में प्रतिदिन भाषाऍ  मर रही है उसी श्रंखला में कहीं हमारी यह बोली भी श्रेणी -बद्ध न हो यह प्रयास हम सबकी नैतिक जिम्मेदारी है। मै इस लेख के माध्यम से अपनी इस बोली के व्याकरणिक और साहित्यिक के साथ भाषा वैज्ञानिक द्रष्टिकोण से भी विवेचन को सम्मिलित करने का प्रयास करूंगा।
                           मुझे तात्विक विवेचन से प्रतीत होता है की पाटीदारी बोली गुजराती भाषा की 'पाटीदारी' बोली के सबसे ज्यादा निकट है। चूंकि हमारे इन लेवा पाटीदारो का Great migration कही न कही चरोत्तर भूमि क्षेत्र से जुड़ा  है, जो माही और साबरमती के दोआबा प्रान्त के रूप में विख्यात है। इतने लम्बे समय में हम प्रव्रजित पाटीदारों की बोली पर निमाड़ी प्रभाव होना स्वाभाविक भी है और निमाड़ी को इस पाटीदारी बोली ने अपने शब्दकोष से संपृक्त  एवं समृद्ध भी किया है। समय के साथ अर्थ विस्तार, अर्थ संकोच, प्रयत्न लाघव, मुख-सुख आदि प्रवृत्तिया आती है  यह बोली भी उन प्रवृत्तियों से अभिन्न है।   इस बोली में लिखित साहित्य है, किन्तु अपर्याप्त है जिसके संकलन और गवेषणा दोनों  की  आवश्यकता है। और यह बोली भी अपने सुधीजनो से यही अपेक्षा करती है।
                             धार,  बड़वानी और खरगोन जिलों के कई ग्रामो में बोली जाने वाली यह बोली मध्य-प्रदेश के किसी भी शासकीय उल्लेख  में दर्ज नहीं है, क्योकि प्रायः  माध्यम के कॉलम में प्रत्येक पाटीदार हिंदी को ही अपनी भाषा के रूप में दर्ज करता है। यही अपनी इस भाषा के साथ अ'मान' की समस्या का मूल है।
                                        अब मैं हिंदी , गुजराती एवं पाटीदारी तीनो भाषाओ के वाक्यांशों का अनुवाद  प्रस्तुत करता हूँ ------
(हिंदी)  आप कहाँ गए थे ? (गुजराती)  તમે ક્યાં ગયા હતા? (पाटीदारी) तमी क्यां ग्याता?
(हिंदी) आप कब वापस आओगे? (गुजराती) તમે ક્યારે પાછા આવશો? (पाटीदारी) तमी क्यारS पछा आवोगS? आदि .........                                     क्रमश:.......

Monday 3 December 2012

जन्मांध

कुछ लोग  
जन्मांध है/
न देखने 
कसम खाने  का 
                  प्रश्न ही कहाँ उठता है/
परन्तु
स्वप्न देखने की मनाही  
कभी 
किसी काल,  
युग 
और देश में 
कभी नहीं रही 
इसलिये 
देख रहे है 
निर्बाध....स्वप्न....दिवा स्वप्न.... 30/10/1999   ---------xtsUnz ikVhnkj



         || फिरा दो मुनादी ||

फिरा दो मुनादी 
                 कि स्वप्न 
मैंने देखे है
                  राम राज्य के 
                          इस रौरवी धरा पर 
अभिव्यक्ति स्वातन्त्र्य पर 
                                      कुछ गूंगे मुखर है 
न्याय की देवी की आँखों पर बंधी पट्टी 
                                कानो को भी कसे हुए है। ---------xtsUnz ikVhnkj

Sunday 2 December 2012

लाक्षागृह

अपने अपने लाक्षागृह/
हर किसी को दहना पड़ता है/
हर किसी को निकलना पड़ता है/
पतली सुरंग से/
दूर जंगल तक चली जाती है वह/
मनुष्य को सुरक्षित छोड़ने के लिये/
जब गृह लाक्षागृह बन जाय/
तब भरोसा किया जा सकता है/
एक अदद अँधेरी गह्वर गुफा,
कुहेलिका के व्यूह सी सुरंग पर/
सुरंगे बिल और बाँबियाँ/
विचार को जन्म देती है/
सदैव सुरक्षा को मुहैया कराती है/
इस तरह मानवता के पक्ष में जाती है सुरंगे/
लेकिन लाक्षागृह भी तपाता और निखारता है युधिष्ठिर को/
उसके शूल और शील दोनों को धार देता है/
लाक्षागृह कभी भी दुर्योधन को सुयोधन नहीं बनाता/
लेकिन युधिष्ठिर को युधिष्ठिर के रूप में स्थापित करता है/
वारणावृत्त और विदुर दोनों जीवन की कितनी ही पहेलियाँ बुनते है/-------गजेन्द्र पाटीदार 18-04-2011







Wednesday 28 November 2012

माहौर नर-संहार का विषन्य ( 17 अप्रेल )


सम्वेदना मर रही है
सम्वेदना अमर है,
मर इसलिये रही है  -कि
मरना उसकी नियति है/
सतत् मर रही है
इसलिये अमर है/
                  कल हीं तो
                  मरी थीं दबकर कुचलकर
                  या कहीं हुई थीं-
                  गोली की शिकार/
हर बार
मरकर पुनः जी उठती थीं
कदाचित ...
जीना भी उसकी नियति है.
किन्तु आज
वह फिर मरी है
अपने ही घर में विस्थापित होकर
यही है-
           अखबार की ख़ास खबर
               इसलिये मरी है/
               हमारे भीतर
कि-
हर सुबह अखबार पढ़ना
उस पर बहस करना
फिर बहस कर भूल जाना
यही आदमीयत की
                            इति श्री है/
इसीलिये घुट-घुट कर
जीती है/
                  और मरती भी है इसीलिये
कि- अब ये सब
आम बात है/
स्थिति तनाव पूर्ण नियंत्रण में,
यही हालत है/
कुछ भी करने पर दंड
यही व्यवस्था की बिसात है/
आज मरना
                सम्वेदना का
और कल फिर मरना उसकी जिजीविषा है,
सबमें
मरकर
पुनः जीती है/
              यही उसकी विजीगिषा  है/
इस तरह
आज जब
सब जगह्
मरी है तो
उसका उठावना,
कल
कब /कहाँ होगा
पता नहीं।।।।-------गजेन्द्र पाटीदार 

Monday 26 November 2012

विडंबना


मैंने लिखा/
             मचा दी क्रांति
विचारों की,
गाड़े कीर्ति के झन्डे/
लोग उठ खडे हुए
            विप्लव के स्वर में
लेकर हाथों में झन्डे/
मैंने लिखी थीं भूख,
            लिखी थीं नग्नता,
            जिसने दी रोटी, दिए कपड़े/
जब मैंने ख़ुद को लिखा---
वह
      अब मै नहीं रहा/
अब मै पाता हूँ,
अपने आप को
उन भूखे, नंगो से जुदा
और फिर अब मै
कब से कोशिश कर रहा हूँ
                          लिखने की
मकान/
कि मुझे छत भी मिल जाएँ/
किन्तु कइयों के छप्पर
                            छिन जाने का डर है/-------गजेन्द्र पाटीदार



Sunday 25 November 2012

मंथन

शब्द तुम,
                अर्थहीन भटकते
पृथ्वि पर
आक्रांत कर रहे हो,
मानव को
              मानस को
दानव बहरा है
क्यो जगाते हो उसे?
जब मानव की सम्वेदना,
मर चुकी,
तब क्यो बकवाद की चिता
को लगाते हो?
        शब्द तुम शांत हो जाओ
कि क्रांति तुम्हारे साथ
प्रेयसी नहीं लगती
       तुम्हारा ताण्डव का आवाहन
                                        थोथा है/
क्योकि शंकर
समाधिस्थ नहीं
संहार की थकावट में
                                श्रांत
                                        सोता है/
शब्द तुम
शक्तियों को
              चेतना की त्वरा दो,
अभिधा से, लक्षणा से,
 व्यंजना से,
                प्रखरतर जाग्रत करो,
तुम्हारे मंथन से
हलाहल निकला है,
तो अमृत की प्रतीक्षा
का धीरज बाँधों/
                  पर सावधान!!
                   कोई राहु अब छले ना/ -------------गजेन्द्र पाटीदार 

अनुमान

मैंने समुद्र देखा नहीं कभी,
मैं एक घोंघा,
एक मछली,
एक मुठ्ठी रेत,
और एक चुल्लू पानी
देखकर।
उसका अनुमान करता हूँ।
और भूल जाता हूँ
खारे पान को।
जो समंदर को
इन सबसे अलग बनाते है।
पर मै अब समझने लगा हूँ--
कि वह खारेपन के बावजूद-
कोई बड़ी चीज है।
और जिसे खारे पानी से
भरी आँखें भी-
नहीं देख सकती।  -------गजेन्द्र पाटीदार 

Monday 5 November 2012

गुमशुदा


गुमशुदा
अपने जीवन से
अपरिचित उस आदमी ने
आज देखा इश्तहार
अपने गुम होने का
ठिठक गया वह
देखकर अपनी
उन इश्तहारों में गुमशुदगी
पर आज उसे कितना
सुकून मिला?
बस भगवान जानता है।
जो अनाम जिंदगी में नहीं मिला
उसे वह इन इश्तहारों में पाकर
वह खुश है
खुश है खुद के
खोने का
कितना उल्लास आज
उसे मिल रहा
जो जीकर नहीं पाया
वह खोकर पाया
इन इश्तहारों में
'कि कोई उसे भी ढूँढता तो है'
-कितना है गुमशुदगी का सुकून?
बिसराया वर्तमान जानता है।
कोई और
समझे न समझे!!

Wednesday 2 May 2012

नदी एक: बिम्ब भिन्न—गजेंद्र पाटीदार

     ।।1।।
नदी का उद्गम/
न जाने कब से खोज रहा हूँ/
संभवतः सदियों से/
जितनी कि मेरी उम्र भी नहीं/
मगर मै खोज रहा हूँ बाहर और अपने भीतर भी/
नदी को बहते देखना /
मेरी नियति /
और नदी हो जाना /
मेरी इच्छा.

     ।।2।।
नदिया कहती रही
   मैंने नहीं सुना
      सहती रही
चुपचाप
       व्यथा औरों की/
ढोती रही पाप पंक
                    जग के/
           जो उसने नहीं किये
                 उन्हें भी स्वीकारा
                    और बहती रही/
चुपचाप
         युगों युगों की अनकही कथा
          कहती रही/
क्या तुमने सुना या गुना?
                                  मै सुनता हूँ  गुनता हूँ
                                   इसीलिए बुनता हूँ यह छंद/
स्वीकारता हूँ सभी पाप-पंक
                        जो विसर्जित किये कभी
                                    अर्ध्य की अंजुरी गहता हूँ, गहता हूँ/    10-09-2011