उसे नही पता कि
उसका देश कितना बड़ा है?
उसे यह भी नही पता कि
संसार भर में कितने देश है?
काले और गोरे का
भेद भी उसे नहीं पता!
बकरियां चराते कब जवान हुई
पता न चला?
कब बच्चे बड़े होकर अपनी
गिरस्ती के साथ पलायन कर गए
पता न चला?
अभी भी वह है
अपनी टूटी छपरैल की चौकीदार!
अभी मौजूद है आँखों में,
इस विरान के खुशहाली से लहलहाने के सपने!
वह आशाओं का मजबूत खण्डहर,
अपनी दरारों में उगते बीजों से,
हरियल होते मौसम पर भी खुश है।
खुशियां कभी कभी
बहुत दारूण होती है।