मुझ मेँ नदी बह़ती है
लगभग समूची
तट पर खड़े लोग
देख सकते है
मंथर, मदिर ,उर्मियाँ
सपाट समतल जल पर
पर गहरे मेँ
एक अंत:सलिला भी
बहती है निरंतर
वही उस नदी का उत्स है,
वही अंत: सलिला हीं
जिलाती है
मुझको सबमें
सबको मुझमेँ।
अनवरत बहकर यह नदी
मुझमेँ मुझको
जिंदा रखती है ।
जो गहरे डूबकर
कुछ खोजते है ।
पा हीं जाते है,
समूची नदी
क्यों कहूँ मोती,
घोंघे,सीपियाँ, शंख,
मछली
ये भी तो नदी के हीं अवयव हैं।
मैं नदी को
भिन्न नहीँ देखता ।
अभिन्न है,
समूची नदी । ....14,08,2014
मन के भाव शब्दों में ढलकर जब काव्य रूप में परिणित होकर लेखन की भूमि पर बोये जाते है, तो अंकुरित हरितिमा सबको मुकुलित करती है! स्वागत है आपका इस काव्य भूमि पर.....।