तालाब के पास
किसी उभरे हुए पत्थर पर,
पंख फैलाए जल कुक्कड़ को देख
नहीं समझना चाहिए
कि वह सरेंडर की मुद्रा में
बैठी,
मछलियों के प्रति अपना प्रायश्चित
प्रकट कर रही है।
समझ लीजिए
वह सुखा रही है पंख
अगली घातक डुबकी के लिए।
मन के भाव शब्दों में ढलकर जब काव्य रूप में परिणित होकर लेखन की भूमि पर बोये जाते है, तो अंकुरित हरितिमा सबको मुकुलित करती है! स्वागत है आपका इस काव्य भूमि पर.....।