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Tuesday 14 July 2020

भद्रदारू

#भद्रदारू
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चीड़! यह नाम सुनकर मन में एक अलग ही अनुभूति होती है। छितराए जटा जूट का एक निस्पृह योगी, जिसे किसी से कोई सरोकार नहीं है। न घने पत्ते जिसकी छाह, न चिकना तना जिसके सुकोमल स्पर्श का सुख मिले। अपने वृन्त से हरित किरणों की तरह लगी पत्तियाँ जो न पत्ती कही जा सकती है न शाखा ऐसी कठोर। लगता है आशुतोष शिव का स्थावर स्वरूप पाकर खड़ा 'मसान-जोगी'! जिसके निकट खड़े रहने का साहस कोई समतुल्य वृक्ष करता नहीं, न करना चाहता या करने देता। औघड़ लोगों के साथ ऐसा ही होता है। भद्रदारू वृक्षों का औघड़ है।

इस भद्रदारू को देखकर गंगावतरण का सचित्र रूप सामने आ जाता है। जैसे शिव के उत्तुंग होकर त्रिपथगा गंगा को अपने जटाजूट में धारण कर उसे धीमे धीमे पृथ्वीवासियों के हितार्थ धराधाम पर प्रवहमान करना भगीरथ की तपस्या का परिणाम था। वैसे ही यह भद्रदारू भी शीतकालीन तुषार के कणों को शिव सदृश अपने छितराए जटाजूट जैसे पत्तों पर धारण कर तुषारगंगा को शनैः शनैः प्रवाहित करता रहता है। ताकि गंगा की अविरल धारा बहती भी रहे और केदार जैसी त्रासद स्थितियों से मानवता बची भी रहे। इस परिकल्पना में मुझे भद्रदारू और देवदारू साक्षात शिव दिखाई पड़ते हैं। 

चीड़ को चीड़ नाम देकर किसी ने चीड़ के साथ अपनी चिड़ निकाली है। चीड़ नाम भी ऐसा चला कि जैसे यह मध्यकालीन मुगलों की तरह अचानक भारत में घुसकर पहाड़ों पर अपना राज जमा गया हो और हिमालय के वृक्षों को पदच्युत कर दिया हो! कुछ इसी प्रकार चीड़ को चिड़ नाम देकर सुशोभित किया। कहते हैं मोहम्मद बिन तुगलक चमड़े के सिक्के चलाने का आविष्कारी बादशाह था लेकिन उसे इतिहास में सनकी बादशाह कहकर याद किया गया। वरना भारतीय संस्कृति में तो चीड़ को ससम्मान 'भद्रदारू' नाम देकर उसकी प्रशंसा हुई है। चीड़ को 'पीत-द्रुम' के रूप में 'पितद्रु' भी कहा गया। अब इतने सुन्दर नाम हो उसे चीड़ कहकर अपमानित करने का क्या प्रयोजन है?

अर्वाचीन लेखकों में निर्मल वर्मा 'चीड़ों पर चाँदनी' पुस्तक में चीड़ को स्मरण करते हैं, भद्रदारू नाम की उपेक्षा कर देते हैं। कविता संग्रह "बोलने दो चीड़ को" में नरेश मेहता जी पितद्रु को भूलते हैं। कवि गौतम राजऋषि चीड़ को अपने सैनिक पेशे से देखते हुए "चीड़ के जंगल खड़े थे देखते लाचार से। गोलियाँ चलती रहीं इस पार से उस पार से।" कह देते हैं लेकिन चीड़ अपने भद्र नाम से विस्मृत होता जाता है। जिसका इतना सुन्दर नाम पुरखों ने रखा हो और उसे इस प्रकार पुकारा जाए तो मन में टीस उठती है, लेकिन यह भद्रदारू नामक मुनी महाराज सांसारिक राग द्वेष से मुक्त वैसे ही सबको देखता और असीसता रहता है।

संभवतः भद्रदारू को देखकर ही हमारी भारतीय मनीषा में अर्धनारीश्वर रूप की यदि कल्पना हुई हो तो वह सार्थक है, वरन श्रीमहादेव का पार्वती के साथ अर्धनारीश्वर रूप इस वृक्ष के निर्माण में प्रेरक रहा होगा। अधिकतर पादपों में पुंकेसर और स्त्रीकेसर एक ही पुष्प में विद्यमान होते हैं, परन्तु भद्रदारू में नर पुष्प अलग और मादा पुष्प अलग होते हैं। इसके अनावृतबीजी फल की व्याख्या कोई वनस्पति विज्ञानी करे तो वह सार्थक हो लेकिन सामान्य तौर पर हम जिन आवृत्तबीजी फलों का खाद्य में प्रयोग करते हैं वैसा नहीं है। इसके नरपुष्पों से पराग विकीर्ण होने के समय निकलने वाला पीतवर्णी धूम्र ही लगता है इसके पीतद्रुम या पितद्रु नाम को सार्थक करता है, हो सकता है पहाड़ों पर गंधक के खनिज स्रोतों को खींच कर अपने में समेट लेता हो और अपने उन्माद के समय वह हुरियारे की तरह पीत रंग की होली खेलने आतुर हो उठता हो।

भद्रदारू की तैलीय प्रकृति इसकी महीन तिनकों जैसी पत्तियों में भी पाई जाती है जो किसी चिन्गारी को बहुत सरलता से पकड़ कर पहाड़ी वनों में भयावह क्षति का कारण बनती है। लोग इसे चीड़ की गलती बताते हैं। यदि चीड़ में तैल न हो तो वह आग नही पकड़ेगा और जंगल नही जलेंगे। मनुष्य खुद अपने कुकर्म को किसी दूसरे पर ढोलकर कितना सयाना बन जाता है यह इस प्रसंग में देखा जा सकता है। उसी भद्रदारू के तनों को चीरा लगाकर द्रव प्राप्त करना हो तो उसके तैलीय गुण लाभकारी और पत्तियों के तैलीय होने से आग पकड़ ले तो हानिकारक! वाह रे मनुष्य तेरी महिमा तो अवर्णनीय है ईश्वर भी गुणगान न कर सके।

भद्रदारू जहाँ खड़ा होता है वहाँ अन्य वृक्ष पनप नहीं पाते हैं। लेकिन यह गुण तो वट-वृक्ष में भी है, उसकी छाया में भी दूसरा कोई पनप नहीं पाता। फिर वट-वृक्ष के प्रति भारतीय संस्कृति में श्रद्धा-भाव और इसके बारे में वर्तमान काल में एक उपेक्षा-भाव रखा जाना किसी षड्यंत्र का कारण तो नहीं है? मुझे तो लगता है कि चीड़ को लेकर लकड़ी-माफिया इस प्रकार की गलत हवा फैलाकर लोगों के मन में वहम भर देता है और फिर पहाड़ी जंगलों का सफाया करने में स्थानीय प्रतिरोध को इस प्रकार एक ठंडा कर देते हैं। अब कितनी ही अमृतादेवी बिश्नोइयाँ और सुन्दरलाल बहुगुणा अकेले वृक्षों से चिपकते रहें और अपना झुनझुना बजाते रहें। जब चीड़ वृक्ष से सारे लाभ प्राप्त करना हो तो कोई अंग शेष नहीं छोड़ा जाता लेकिन काटने के बाद जब उन्ही नग्न पहाड़ों को आवृत्त करने की बात आती है तो बड़ी योजनाएँ ही बनती रहती है। जबतक वृक्षों के प्रति जनमानस में प्रेम नही उपजता कितनी ही सरकारी योजनाएँ बनती रहे वृक्ष बड़ा नही हो सकता। कोई बाहरी व्यक्ति पौधा लगाकर कितने दिन उसकी सेवा कर सकता है? वह उधर गया और इधर बकरी चट कर जाती है। फिर अगले वर्ष खाली जमीन पर अगली योजना बनने के लिये कटे हुए वृक्ष की लुगदी का कागज भी समर्पित हो जाता है। वृक्ष कागजों पर भी मरता है और कागजों के लिए भी मरता है! कह सकते हैं वृक्ष की कागजों के लिए, कागज द्वारा, कागजी मुद्रा (तनख्वाह) पाने के लिए हत्या। 

भद्रदारू को देखकर ही भारत के घुमक्कड़ लोग जगह के एल्टिट्यूड (समुद्र तल से ऊंचाई) का अनुमान लगा लेते हैं! भद्रदारू जहाँ दिखना प्रारंभ हुआ कि लोग समझ लेते हैं समुद्र तल से हजार मीटर ऊंचे स्थान पर पहुँच चुके है। लेकिन ऐसा केवल भारत में है। प्रस्तुत फोटो मैंने समुद्र किनारे रैरिटन खाड़ी पर लिया है। अस्सी मीटर ऊँचे भद्रदारू मिलते हैं वहाँ इसकी ऊँचाई केवल तीन मीटर है और उस पर जो हाथ में फल है वह स्त्रीकेसर है। जब फल कठोर होकर वृक्ष से टूट जाता है हमारे देश में इसे सजावट के रूप में पहाड़ों की मुफ्त याद की तरह ड्राइंग रूम में सजाते हैं। मेरी श्रीमतीजी इसके आकार में नाग आकृतियों का वलय देखकर नागफण कहती हैं। गाँव की महिलाएँ आपस में इसके बारे में एक चर्चा करते हुए मिथक भी गढ़ लेती है कि यह जहँ रखा हो वहाँ सर्प नही आते। अरे भाई सर्प बेकार में इधर उधर नही भटकते वे जहाँ चूहे अधिक हो वही पीछे पीछे पहुँच जाते हैं और कुछ नहीं।

पहाड़ों पर देवदारू यदि देवदारू है तो बाँज (शाहबलूत या ओक) को मैं स्वस्तिदारू कहना पसंद करूँगा। चीड़ तो भद्रदारू है ही। तो आप जब भी किसी पहाड़ की ओर जाएँ और आपको यह पेड़ मिल जाए तो एकबार भद्रदारू नाम स्मरण कर लीजियेगा, बड़ा सुन्दर और शुभ नाम है।
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कुछ पहाड़ी जनजीवन का मानना है कि भद्रदारू को अंग्रेज लाए थे, उस परिप्रेक्ष्य में बताना चाहूँगा कि नैनिताल के पास रानीबाग में कोनीफर चीड़ की प्रजाति के पचहत्तर लाख के लगभग पुराने वृक्षजीवाश्म इसके स्थानीय होने की पुष्टि करते हैं!)