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Monday 9 March 2015

तंत्र-लोक (गजेन्द्र पाटीदार)

मेरे लाख समझाने पर भी,
हर बार की तरह
उस पिचहत्तर साला बूढ़ी अम्मा ने
वोट नहीं दिया/
मैंने उसे समझाया
कि अम्मा तेरे एक वोट से
सरकार बदल सकती है,
बन सकती है, गिर सकती है!
मगर टस से मस नहीं हुई अम्मा!
हर बार की तरह मैं खुद कितनी हीं
पार्टियाँ बदल कर
पहुँचा अम्मा के पास
कि शायद अम्मा
इस पार्टी में नहीं तो उस पार्टी में
रहने पर वोट दे दे!
मगर हर बार विफलता!
मुझे अगली चढ़ाई के लिये उकसाती अम्मा/
पर अब सोच रहा हूँ -
अगले चुनावों में मैं नहीं जाउँगा
अम्मा के पास
नहीं मागूंगा उसका वोट
मैं हीं मान लूँगा हार,
मैं हीं मान लूँगा -'उसके एक वोट से क्या होता है?'
पर सोचता हूँ
इन पाँच सालों में
शायद वह हीं आकर कह दे—
'मुझे नहीं चाहिये तेरी सरकार से कुछ
न राशन, न पेंशन, न कुटीर, न संडास,
न कुछ पर देना चाहती हूँ वोट
अब की बार,
आखिरी बार,
मुझे महसूस तो हो
कि तेरी सरकार,
तेरा लोकतंत्र
मेरे वोट का हकदार है!
मैं तंत्र को नहीं
लोक को वोट देना चाहती हूँ
बस चाहती हूँ इतना कि
ऊँचे घर के खानें की खुशबू से
मेरे बच्चे न मचले!
बस चाहती हूँ इतनी सी बात!
क्या तू या तेरी सरकार
मेरे वोट की गारंटी लेने के लिये तैयार है?'
            09-03-2015